इस जन्म के सभी रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता

एक बार देवर्षि अपने शिष्य तुंबरू के साथ कहीं जा रहे थे। गर्मियों के दिन थे। एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहां से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा। उनमें से एक बकरा सामने वाली दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था ‘शगालचंद सेठ’। दुकानदार ने देखा तो बकरे के कान पकड़कर 2-4 घूंसे मार दिए। फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहा, ‘जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मुझे देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है।’ 


देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर से हंस पड़े। तुंबरू पूछने लगा, ‘गुरुजी! आप क्यों हंसे? उस बकरे को जब घूंसे पड़ रहे थे तब आप दुखी हो गए थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हंस पड़े। इसमें क्या रहस्य है?’


नारद जी ने कहा कि इस दुकान पर जो नाम लिखा है शगालचंद सेठ वह स्वयं बकरा बनकर आया है। यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। सेठ को मरने के बाद बकरे की योनि मिली है और इस दुकान से अपना पुराना संबंध समझकर यहां से मोठ खा गया। मैंने देखा कि इन बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया तो यह कमबख्त क्यों गया? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका इस दुकान से पुराना संबंध है। पर जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतना कमाया था वही बेटा उसे मोठ के 4 दाने भी नहीं खाने दे रहा है और गलती से खा लिए तो मुंडी मांग रहा है बाप की। इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हंसी आ गई। इस जन्म के सभी रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।

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