नीरथ में है सूर्य नारायण धाम, दुखियों को मिलती है मानसिक शांति

वेदत्रयी स्वरूपा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण विवस्वान की आकाशीय पूजा का हिन्दुओं में अनादिकाल से प्रचलन रहा है। हिन्दूमत के अनुसार ज्योतिपुंज, ऊर्जादायक, जगत के एकमात्र नेत्र, अग्नि के समान निर्मल, स्वर्ण कांतियुक्त सूर्य देव की प्रात:कालीन बेला में दैनिक पूजा से जीवन के समस्त रत्न अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। भारत के सूर्य नारायण की मंदिरों में देवरूप में पूजा करने की परिपाटी भी पुरातन है। देवाधिदेव सूर्यदेव की पूजा देश के भिन्न-भिन्न मंदिरों में असीम श्रद्धा एवं विश्वास के साथ की जाती है। देश में सूर्य भगवान के भव्य मंदिरों में कोणार्क उड़ीसा का मंदिर अग्रगण्य है। इसके पश्चात हिमाचल के सूर्य नारायण मंदिर नीरथ का नाम आता है। नीरथ एक पौराणिक ग्राम है। लोक धारणा है कि यह गांव भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम की शौर्य स्मृतियों से जुड़ा है। नीरथ ग्राम के नामकरण का आधार भी परशुराम का अटूट पराक्रम बताया जाता है। लोकश्रुति है कि तत्कालीन परिस्थितियों में नीरथ पर दैत्य का एकछत्र साम्राज्य था। दैत्य के भय से गांव आबाद नहीं हो पा रहा था। दैत्य की भयंकर गर्जना से सारा वातावरण भयातुर हो उठता था। यहां परशुराम के आगमन से दैत्य का क्रंदन स्वत: ही बंद हो गया था। लोक आस्था में आज भी यही विश्वास दृढ़ है कि दुखों से त्रस्त मनुष्य यहां आकर मानसिक शांति प्राप्त करता है और दैहिक सुखों की अनुभूति लेकर जाता है। इसी कारण इस स्थान का नाम ‘निरुद्ध’ पड़ा प्रतीत होता है जिसका वाक्यार्थ रुदन को रोकना है। निरुद्ध का अपभ्रंश रूप निर्त लोक व्यवहार में प्रचलित हुआ। निर्त का परिष्कृत रूप नीरथ ही संभवत: लोक व्यवहार में प्रचलित हुआ है।

पौराणिक आख्यानों में उल्लेख मिलता है कि पितृ भक्त परशुराम ने पिता महर्षि जमदग्नि की आज्ञा से किसी अपमान वश अपनी माता रेणुका का सिर आवेश में आकर काट डाला था। मातृ वियोग से पीड़ित परशुराम ने माता रेणुका को पुनर्जीवित तो करवा लिया लेकिन मातृ दोष का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम ने हिमालयायी जनपदों का भ्रमण कर जगह-जगह देवी-देवताओं के असंख्य मंदिरों का निर्माण करवाया। परशुराम द्वारा हिमालयायी क्षेत्रों में मंदिर स्थापना की श्रृंखला में देव भूमि हिमाचल के पांच प्रमुख देवस्थलों दत्त नगर (शिमला), निरमंड कुल्लू, काओ तथा ममेल (मंडी) और नीरथ (शिमला) की अलग पहचान है। इन स्थानों पर बने देव मंदिरों के प्रति जनमानस में गहरी लोक आस्था है। यह पंचस्थली प्राचीनकाल से ही सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रही है।इन पांच देवस्थलियों का अस्तित्व परशुराम द्वारा मातृ हत्या के पश्चाताप से ऊऋण होने के प्रयासों का परिणाम बताया जाता है। यह भी लोकश्रुति है कि इन मंदिरों में दैनिक गतिविधियों का संचालन तथा आराध्य देव की वैदिक पद्धति से पूजा अर्चना करवाने के लिए परशुराम ने दक्षिण भारत से ब्राह्मण परिवारों को यहां लाकर बसाया था जिन्हें मंदिर का कार्य निभाने के बदले में मंदिर की भूमि दान दे दी गई थी। इसका साक्ष्य मंदिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने प्रांगण में बना चबूतरा भी प्रस्तुत करता है। जनश्रुति है कि परशुराम ने इस चबूतरे पर बैठकर नीरथ के ब्राह्मणों को भूमि दान में दी थी। राजस्व अभिलेख की प्रविष्टियां भी यहां के ब्राह्मणों को मंदिर के मुजाहरा होने का प्रमाण दर्शाती हैं। इन मंदिरों में उपलब्ध ताम्रपत्र पर लिखित लिपि भी इन तथ्यों की पुष्टि करती है।

जगत की एकमात्र ज्योति और सृष्टि के साक्षात ब्रह्मरूप सूर्य नारायण असीम आस्था के प्रतीक हैं। इस देव स्थल में निर्मित सूर्यदेव का मंदिर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का प्रतीत होता है। पुरातत्ववेताओं का मानना है कि प्रतिहारकालीन इस मंदिर से पूर्व भी इसी स्थान पर एक छोटा देवालय रहा होगा। मंदिर के वर्तमान ढांचे का आकलन करने से अनुमान लगाया जा सकता है कि कालांतर में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ होगा। कला कौशल की दृष्टि से सूर्यनारायण मंदिर नीरथ उत्तर भारत का एकमात्र मंदिर है। शिखर शैली में उत्कृष्ट प्रस्तर कला के साथ निर्मित यह मंदिर निपुण वास्तु कला की बेजोड़ मिसाल है। मंदिर की ब्राह्य त्रय भित्ति पीठिकाओं पर लघु आकृति के अलग-अलग देवघर बने हैं। मंदिर की दक्षिणी भित्ति पर अलंकृत लघु देवालय में मुख्य प्रतिमा लक्ष्मी नारायण की है। इसके एक ओर शिव-पार्वती (नंदी सहित) तथा  दूसरी ओर महिषासुरमर्दिनी का देव कोष्ठ है। पश्चिमी भाग के देवालय में मुख्य प्रतिमा गरुड़ासीन विष्णु-लक्ष्मी की है। इसके दाएं विष्णु लक्ष्मी तथा बाएं देव कोष्ठ में शिव-पार्वती की मूर्तियां हैं। इसी भांति उत्तर दिशा की बाह्य भित्ति पर उत्कीर्ण देवसदन के मुख्य देव सिद्धि विनायक (गणेश) के साथ चतुर्थमुखी शिव और त्रिमुखी विष्णु की दो मूर्तियां भिन्न-भिन्न लघु देव प्रकोष्ठों में हैं। मंदिर का शिखर लगभग चालीस फुट ऊंचा है जिस पर अमलक लगा है। अमलक के ऊपर कलश स्थापित है। 

शिखर पर अमलक से लगभग दो फुट नीचे चारों ओर शार्दुल भी देखने को मिलते हैं। शिखर के नीचे बाहरी दीवारों के मध्य भाग की चारों दिशाओं पर देव कोष्ठकों में सूर्य नारायण की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं जबकि पूर्वी भाग पर अंकित एक मुखी सूर्य नारायण की प्रतिमा के नीचे गजासीन चतुर्भुज विष्णु की प्रतिमा भी है। मंदिर रथ का गर्भगृह भी पुरातन शिल्प कला का द्योतक है। गर्भगृह के बाहर स्लेट की ढलानदार छत से आच्छादित मंडप है जो मुख्य मंदिर के साथ कालांतर में अलग से जोड़ा गया है। सभा मंडप में सूर्य नारायण, विष्णु लक्ष्मी तथा हरिहर की प्रस्तर प्रतिमाएं भी 11वीं शताब्दी की हैं। अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं 14वीं, 17वीं तथा 18वीं शताब्दी की हैं। मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार के अंदर बाईं ओर एक नाभि कुंड भी है जहां भूंडा और शांत यज्ञों के अवसर पर हवन का आयोजन किया जाता रहा है। यहां मुख्य कुंड के अतिरिक्त अठारह अन्य हवन कुंडों तथा अन्न भंडारण गृह होने के प्रमाण भी मिलते हैं। रियासतकाल में छोटी-छोटी रियासतों के अठारह राणों ने यहां अलग-अलग हवन कुंड बनवाए थे। इन सभी हवन कुंडों में भूंडा और शांत के उपलक्ष्य पर वाममार्गीय पद्धति से हवन करवाए जाते थे। इन्हीं राजा-राणों ने समय-समय पर मंदिर परिसर का विकास एवं पुनरुद्धार करवाया होगा। 

सन् 1810 ई. में गोरखा सेनापति काजी अमर सिंह थापा ने भारी सेना के साथ बुशहर की राजधानी रामपुर को अपने अधिकार में ले लिया था। तत्कालीन परिस्थितियों में बुशहर के राजा महेंद्र सिंह नाबालिग थे। रियासती वजीर उन्हें साथ लेकर किन्नौर चले गए थे। गोरखों ने रामपुर में तबाही मचा दी। सारे रियासती अभिलेख जलाकर भस्म कर दिए। सूर्य नारायण मंदिर नीरथ भी गोरखा आक्रमण से अछूता न रहा। यहां गोरखों ने अन्न भंडारण गृह नष्ट कर दिए। मंदिर के शिखर पर लगा स्वर्ण कलश चुरा ले गए। लूटपाट के दौर में मंदिर से बहुत सा सोना-चांदी लूट कर ले गए। सूर्यनारायण मंदिर नीरथ के संबंध में यह कहावत मशहूर रही कि गर्भगृह में स्थापित सूर्यनारायण की प्रतिमा से नि:सृत स्वर्णिम किरणों से गर्भगृह मंडित हो उठता था।   

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