अखंड सौभाग्य देता वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत एक ऐसा व्रत है जिसे हिंदू स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और संतान प्राप्ति की कामना से करती हैं। उत्तर भारत में यह व्रत काफी लोकप्रिय है। इस व्रत की तिथि को लेकर पौराणिक ग्रंथों में भी भिन्ना-भिन्ना मत मिलते है। दरअसल इस व्रत को ज्येष्ठ मास की अमावस्या और इसी मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।


एक और जहां निर्णयामृत के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को किया जाता है तो वहीं स्कंद पुराण एवं भविष्योत्तर पुराण इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा पर करने का निर्देश देते हैं। वट सावित्री पूर्णिमा व्रत दक्षिण भारत में भी किया जाता है, मगर यह व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से किया जाता है। आइए जानते हैं इस व्रत की कथा और महत्व।


वट सावित्री व्रत की कथा सत्यवान-सावित्री के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित है। कथा के अनुसार एक समय की बात है कि अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा था। उनकी कोई भी संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।


विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। सत्यवान वैसे तो राजा के पुत्र थे लेकिन उनका राजपाट छिन गया था और अब वे बहुत ही साधारण जीवन जी रहे थे। उनके माता-पिता की भी आंखो की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाते और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहे थे। जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी।


हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्री को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्री ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही। अंतत: सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही।


नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई।


वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगे, उनके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गए। कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े थे। जब यमराज सत्यवान की जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी।


आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, 'हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ। इस पर सावित्री ने कहा, 'जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है। यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्ना हुए और उसे वर मांगने को कहा- सावित्री ने कहा, 'मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें। यमराज ने 'तथास्तु कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे। किंतु सावित्री यम के पीछे-पीछे ही चलती रही।


यमराज ने प्रसन्ना होकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने वर मांगा, 'मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए। यमराज ने 'तथास्तु कहकर पुन: उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गई। सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा।


तब सावित्री ने वर मांगा, 'मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें। सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्ना हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए।


सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता-पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।


वट सावित्री व्रत पूजा विधि 


वट सावित्री व्रत में वट यानी बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान-सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। अत: वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


वट सावित्री व्रत के दिन स्त्रियों को प्रात:काल उठकर स्नान करना चाहिए। इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रह्मदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियां स्थापित करें। दोनों टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे रखें और ब्रह्मदेव और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें।


तत्पश्चात सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें और वट वृक्ष को जल दें। वट-वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं और जलाभिषेक करें। वट वृक्ष के तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन बार परिक्रमा करें। इसके बाद वट सावित्री व्रत की कथा सुननी चाहिए।


कथा सुनने के बाद भीगे हुए चने का बायना निकालें और उस पर कुछ रुपए रखकर अपनी सास को दें। जो स्त्रियां अपनी सास से दूर रहती हैं, वे बायना उन्हें भेज दें और उनका आशीर्वाद लें। पूजा समापन के पश्चात ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि दान करें।


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