आज इस कथा को पढ़ने से पापों का होगा नाश, सहस्त्र गौदान का पुण्य होगा प्राप्त

चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम पापमोचनी है। यह समस्त पापों का नाश करने वाली है। पिशाच योनि से भी मुक्ति प्रदान कराने वाली है। इस एकादशी की महिमा लोमश ऋषि जी ने मान्धाता राजा को सुनाई थी।

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पापमोचनी एकादशी व्रत कथा
प्रचीन काल में धनपति कुबेर का चैत्ररथ नाम का फूलों का एक बड़ा सुदंर बगीचा था। जहां हमेशा ही बसंत ऋतु बनी रहती थी। वहां गंधर्व कन्याएं किन्नों के साथ सदैव विहार किया करती थी। इंद्रादि देवता भी वहां आकर क्रीड़ा किया करते थे। उस बाग में कैलाशपति भगवान शिव जी के एक परम भक्त, मेधावी नाम के ऋषि तपस्या करते थे। ये मेधावी ऋषि च्यवन ऋषि के पुत्र थे। उनकी तपस्या को देखकर इंद्र ने सोचा कि यदि मेधावी ऋषि की तपस्या सफल हो गई तो यह मेरा सिंहासन छिनकर इंद्रलोक का राजा बन जाएगा। इसलिए उसने उनकी तपस्या भंग करने के लिए विघ्न डालना शुरू किया। इस परियोजन के लिए इंद्र ने कामदेव एवं मन्यूघोषा नामक अप्सरा को आदेश दिया कि तुम मेधावी ऋषि की तपस्या को भंग कर दो। फिर क्या था आदेश पाते ही उन्होंने अपना काम शुरु कर दिया परंतु ऋषि के अभिशाप के भय से वे ऋषि के नजदीक नहीं गए। उनके आश्रम के कुछ दूरी पर अपनी एक कुटिया बनाकर रहने लगे तथा नियम से प्रतिदिन वीणा बजाते हुए मधुर स्वर में गाने लगे। सुंगधित पुष्प एवं चंदन चर्चित होकर गायिका अप्सरा मन्जुघोषा के साथ कामदेव भी उन शिव भक्त ऋषि को पराभूत करने की भरसक कोशिश करने लगा। 


एक तो देवराज इंद्र की आज्ञा अौर फिर ऊपर से शिव जी के प्रति प्रबल शत्रुता का भाव क्योंकि शिवजी ने उसे भस्म कर दिया था, उसी बात को याद करते हुए प्रतिशोध की भावना से वह मेधावी ऋषि के शरीर में प्रवेश कर गया। कामदेव के शरीर में प्रवेश करते ही च्यवन पुत्र मेधावी ऋषि भी अद्वितीय रुप राशि के स्वामी कामदेव की तरह ही रुपवान दिखने लगे, जिसे देखकर वह मंजुघोषा अप्सरा मेधावी ऋषि पर कामासत्तक होकर धीरे धीरे उन मुनि के आश्रम में आकर उन्हें मधुर में गाना सुनाने लगी। परिणाम स्वरूप वे मेधावी श्रषि भी मंजूघोषा का रुप देखकर एव संगीत सुनकर उसकी वशीभूत हो गए तथा अपने अराध्य भगवान चंद्रमौली गौरीनाथ को भूल गए। भजन, साधन, तपस्या, ब्रह्मचर्य आदि छोड़कर उस रमणी के साथ हास परिहास, विहीर विनोद में दिन बिताने लगे। इस प्रकार उनका बहुत सा समय निकल गया। मंजूघोषा ने देखा कि इनकी बुद्धि, विवेक, सदाचार संयम आदि सब कुछ नष्ट हो चुका है। मेरा भी उद्देश्य तो अब सिद्ध हो चुका है। अब मुझे इंद्र लोक वापस चला जाना चाहिए। ऐसा विचार करके एक दिन वह मुनि से बोली, "हे मेधावी जी! मुझे यहां आपके पास काफी समय गया है अत: अब मुझे अपने घर वापस चले जाना चाहिए।"


मेधावी जी ने कहा, " मेरी प्राण प्रिय! आप अभी कल शाम को ही तो आई थीं, अभी सुबह-सुबह ही चली जाअोगी तुम ही तो मेरी जीवनसंगनी हो, तुम ही तो मेरे जीवन की सर्वस्व हो अपने जीवन साथी को छोड़कर कहां जाअोगी अब तो यह स्थिति है कि तुम्हारे बगैर एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकता।"


उन मुनि की इस प्रकर दीन भाव से प्रार्थना को सुनकर व अभिशाप के भय से वह मंजुघोषा अप्सरा अौर भी कई वर्षों तक उनके साथ रही। इस प्रकार सत्तावन साल, नौ महीने व तीन दिन तक रहते हुए भी उन मुनि को विषय-भोग की प्रमत्तता में इनकी लंबी अवधि केवल एक रात्रि के समान ही लगी। इतने वर्ष बीत जाने के बाद फिर एक दिन उस अप्सरा ने मेधावी ऋषि से अपने घर जाने की अनुमति मांगी तो मुनि ने कहा, "हे सुंदरी! आप तो कल सांयकाल को ही मेरे पास आई थी। अभी तो सुबह ही हो पाई है। मैं थोड़ी अपनी प्रात:कालिन संध्य कर लूं तब तक आप प्रतीक्षा कर लें।"


तब उस अप्सरा ने मुस्कराते हुए व आश्चर्यचकित होकर कहा," हे मुनिवर! सत्तावन साल, नौ महीने अौर तीन दिन तो आपको मेरे साथ हो ही गए हैं, आपके प्रात:कालिन संध्या होने में अोर कितना समय लगेगा, आप अपने स्वाभाविक स्थिति में ठहर कर थोड़ा विचार कीजिए।"

 

अप्सरा की बात सुनकर व थोड़ा रुककर मुनिवर बोले," हे सुंदरी! तुम्हारे साथ तो मेरे 57 वर्ष व्यर्थ ही विषयासक्ति में निकल गए। हाय! तुमने तो मेरा सर्वनाश ही कर दिया, मेरी सारी तपस्या नष्ट कर दी। आत्मग्लानि के मारे मुनि की आंखों से आंसुअों की अविरल धारा बहने लगी तथा साथ ही क्रोध से उनके अंग कांपने लगे। अप्सरा को अभिशाप देते हुए मुनि कहने लगे। तूने मेरे साथ पिशाचिनी की तरह व्यवहार किया अौर जानबूझ कर मुझे भ्रष्ट करके पतित कर दिया। अत: तू भी पिशाचिनी की गति को प्राप्त हो जा। अरी पापिनी! अरी चरित्रहीने! अली कुल्टा! तुझे सौ-सौ बार धिक्कार।" 

 

ऐसा भयंकर शाप सुनकर वह अप्सरा नम्र स्वर बोली, "हे विप्रेंद्र! आप अपने इस भयंकर अभिशाप को वापस ले लीजिए। मैं इतने लंबे समय तक आपके साथ रही। हे स्वामिन! इस कारण मैं क्षमा के योग्य हूं, आप कृपा-पूर्वक मुझे क्षमा कीजिए।"


अप्सरा की बात सुनकर उन मेधावी ऋषि ने कहा,"अरी कल्याणी! मैं क्या करूं। तुमने मेरा बहुत बड़ा नुक्सान कर दिया इसलिए गुस्से में मैंने तुम्हें अभिशाप दिया। मेरी सारी तपस्या भंग हो गई, मेरे मनुष्य जीवन का अनमोल समय यूं ही नष्ट हो गया। मेरे मनुष्य जीवन के वे क्षण वापस नहीं आ सकते अौर न ही ये अभिशाप वापस हो सकता है। हां, मैं तुमको शाप से मुक्ति का उपाय अवश्य बताऊंगा, सुनो चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी समस्त प्रकार के पापों का नाश करने वाली है। इसलिए उसका नाम पापमोचनी एकादशी है। इस एकादशी को श्रद्धा के साथ पालन करने पर तुम्हारा इस पिशाच योनि से छुटकारा हो जाएगा।"


ऐसा कह कर वह मेधावी ऋषि अपने पिता के आश्रम में चले गए। त्रिकालज्ञ च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र को तपस्या से पतित हुआ देखा तो वे बड़े ही दुखी हुए एवं बोले," हाय! हाय! पुत्र तुमने ये क्या किया? तुमने स्वयं ही अपना सर्वनाश कर लिया है। एक साधारण स्त्री के मोह में पड़कर तुमने अपने संपूर्ण जीवन में उपार्जित तपशक्ति को नष्ट करके अच्छा काम नहीं किया।"


मेधावी ऋषि बोले," हे पिताजी! मैं दुर्विपाक से अप्सरा के संसर्ग से महापाल के दलदल में डूब गया था। अब आप ही कृपा करके मुझे इससे मुक्ति का उपाय बताइए ताकि मैं अपने किए हुए कुकर्म के लिए पश्चाताप करते हुए पवित्र हो सकूं।"


पुत्र के प्रति दया एं करुणा से द्रवीभूत होकर व पुत्र की कातर प्रार्थना सुनकर कृपा करके च्वयन ऋषि बोले," चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी के व्रत का पालन करने पर तुम्हारे भी समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे. इसलिए तुम भी इस व्रत का पालन करो।" 

 

दयालु पिता का उपदेश सुनकर मेधावी ऋषि ने चैत्र मास के कृष्ण-पक्ष की एकादशी का व्रत बड़े ही निष्ठा एवं प्रेम से किया। उस व्रत के प्रभाव से उनके संपूर्ण पाप नष्ट हो गए अौर वे पुन: पुण्यात्मा बन गए। उधर वह मंजूघोषा अप्सरा भी महापुण्यप्रद पापमोचनी एकादशी व्रत का पालन करके पिशाचिनी शरीर से मुक्ति पाकर पुन: दिव्य रुप धारण कर स्वर्ग को चली गई। 

 

लोमश ऋषि ने राजा मान्धाता जी से इस प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा," हे राजन! पापमोचनी एकादशी व्रत के आनुषंगिक फल से ही पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का महात्म्य श्रवण करके एवं इस एकादशी के दिन व्रत करके सहस्त्र गौदान का फल मिलता है। इस व्रत के द्वारा ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, मदिरापान तथा गुरुपत्नीगमन जनित स्मस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि श्री विष्णु व्रत समस्त पाप विनाशक एवं अनेकों पुण्य प्रदान करने वाला है। अत: सभी को इस महान एकादशी व्रत का अवश्य पालन करना चाहिए।"

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