जब एक अपंग ने दिलाया राजा को उसकी भूल का अहसास

मिथिला नरेश जनक की मानवीयता एवं सहृदयता की चर्चाएं दूर-दूर तक होती थी। एक बार वह अपने दरबार में विद्वानों और अपने मंत्रियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे, तभी वहां ऋषि अष्टावक्र पहुंच गए। उनका चेहरा तो कुरूप था ही, नाम के अनुरूप उनके शरीर के अंग भी टेढ़े-मेढ़े थे। वह किसी तरह अपने शरीर को संभालते हुए सभा में आए। उनकी कुरूप देह को देखकर सभा में बैठे विद्वानों ने हंसना शुरू कर दिया। उन्हें हंसता देख अष्टावक्र भी जोरों से हंसने लगे।

महाराज जनक इस असामान्य स्थिति में सिंहासन से उठकर अष्टावक्र के पास गए और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले, ‘‘महाराज आपके हंसने का कारण विदित नहीं हुआ, कृपया समाधान करें?’’ 

अष्टावक्र बोले, ‘‘क्या आप इन विद्वज्जनों के हंसने का खुलासा करेंगे?’’


इतने में एक सभासद खड़ा हुआ और बोला, ‘‘हमें तेरी व्यंग्यात्मक काया को देखकर हंसी आ रही है।’’


अष्टावक्र बोले, ‘‘महाराज मैंने सुना था कि आपके दरबार में विद्वान, समझदार और संवेदनशील लोग हैं, इंसान की कद्र करने वाले पारखी लोग आपकी मंत्रिपरिषद के सदस्य हैं परंतु यहां आकर देखा तो मुझे बहुत कष्ट हुआ कि आपने तो अज्ञानियों की जमात इकट्ठा कर रखी है। यही देखकर मुझे हंसी आ गई।’’

राजा जनक बोले, ‘‘महाराज आप यह क्या कह रहे हैं। आपको इस तरह विद्वानों एवं मंत्रिपरिषद के काबिल सदस्यों का अपमान नहीं करना चाहिए।’’ 


अष्टावक्र बोले, ‘‘महाराज, मैं ठीक ही तो कह रहा हूं। इन लोगों को मैं और क्या कहूं जो मेरे शरीर की बनावट को देखकर हंस रहे हैं, मेरी चेतना को परखने की कोशिश भी नहीं कर रहे। इनसे पूछकर मुझे इतना भर बता दें कि ये घड़े पर हंस रहे हैं या कुम्हार पर?’’


यह सुनते ही राजा जनक सहित सभी विद्वानों को अपनी भूल का अहसास हो गया।


Leave a Reply