आज के दिन जन्मा था ‘पंजाब का शेर’, दहाड़ा था- साइमन गो बैक

‘मेरा मजहब मुल्क परस्ती है’ 
जिस प्रकार उपवन के सभी फूल सुगंधित नहीं होते, प्रत्येक रात पूनम की सुहानी रात नहीं होती, हर सागर में हीरे नहीं मिलते ठीक उसी तरह समाज का हर व्यक्ति लाला लाजपत राय जैसा नहीं हो सकता। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी के नाम से परिचित न हो। इनके अदम्य साहस से अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिल गई थी और अंग्रेजों के विरोध में लाला जी की सिंह गर्जना से दिशाएं कांप जाती थीं। जब वह बोलते थे तो संसार चकित हो उठता था क्योंकि अपनी स्पष्टवादिता से चाणक्य की भांति साधनों की चिंता नहीं करते थे, केवल लक्ष्य सिद्धि चाहते थे। आजीवन ब्रिटिश सरकार से टक्कर लेते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गर्म दल के प्रमुख नेता एवं पंजाब के प्रतिनिधि के रूप में अपना वर्चस्व कायम रखने वाले लाला लाजपत राय जी को ‘पंजाब का शेर’ और ‘पंजाब केसरी’ की उपाधि मिली थी। वह भारत के अनमोल रत्नों में से एक हैं।

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आर्य समाज के प्रबल समर्थक 
28 जनवरी 1865 को ढुढिके गांव, फरीदकोट में जन्मे लाला जी पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहे। कालेज की पढ़ाई करते हुए वह भाषण प्रतियोगिताओं में खूब प्रशंसा बटोरते थे और उनका यही गुण उनकी वकालत में काम आया।  1886 में हिसार में वकालत करते हुए वह स्वामी दयानंद जी के संपर्क में आए। स्वामी जी की बातों का उन पर ऐसा असर हुआ कि वह आर्य समाज के प्रबल समर्थक बन गए और यहीं से उनमें उग्र राष्ट्रीय-भावना जागृत हुई।


30 अक्तूबर 1883 को जब स्वामी दयानंद जी का देहांत हुआ तो 9 नवम्बर 1883 को आर्य समाज की ओर से एक शोक सभा का आयोजन किया गया जिसके अंत में यह निश्चित किया गया कि स्वामी दयानंद जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाए जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृत एवं हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जा सके।


1886 में इस संस्थान की स्थापना और इसके संचालन में लाला जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। कालांतर में वह डी.ए.वी. कालेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने। पंजाब में दयानंद एंग्लो वैदिक कालेजों की स्थापना के लिए इन्होंने कोष एकत्रित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन सब कार्यों के अतिरिक्त हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष, हिन्दी भाषा की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता की लड़ाई में भी सदा सक्रिय रहे।


प्रभावशाली ओजस्वी लेखक 
एक राष्ट्र प्रेमी नेता होने के साथ ही लाला जी एक प्रभावशाली लेखक भी थे। मांडले जेल में रहते हुए जब उनका किसी से भी कोई संपर्क नहीं था तो उन्होंने उस समय का सदुपयोग  लेखन-कार्य में किया। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण, शिवाजी, अशोक, स्वामी दयानंद व अन्यों की संक्षिप्त जीवनियां लिखीं। उन्होंने ‘नैशनल एजुकेशन’, ‘अनहैप्पी इंडिया’, ‘द स्टोरी आफ माई डिपोर्टेशन’ जैसी प्रसिद्ध रचनाएं लिखीं। ‘पंजाबी’, ‘वंदे मातरम्’ (उर्दू) व ‘द पीपुल’ नाम के तीन समाचारपत्रों की स्थापना करने और इनके माध्यम से देश में ‘स्वराज्य’ के प्रचार का गौरव इन्हें प्राप्त है। इन्होंने उर्दू दैनिक ‘वंदे मातरम्’ में लिखा : ‘मेरी जायदाद मेरी कलम है, मेरा मंदिर दिल है, मेरा मजहब मुल्क परस्ती है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं…’


 देश प्रेम एवं युवाओं में जागृति लाने के लिए लाला लाजपत राय जी ने जोश से परिपूर्ण ‘तरुण भारत’ नामक एक पुस्तक लिखी जिसे अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। ‘यंग इंडिया’ नामक मासिक पत्र निकालने का श्रेय भी इन्हें जाता है। ‘भारत का इंगलैंड पर ऋण’ व ‘भारत के लिए आत्मनिर्णय’ नामक पुस्तकें लिखने के साथ इन्होंने ‘इंडियन इंफारमेशन’ व ‘इंडियन होमरुल लीग’ नामक दो संस्थाएं भी चलाईं।


महत्वपूर्ण भूमिकाओं में योगदान 
वे इटली के क्रांतिकारी ज्यूसेपे मेत्सिनी को अपना आदर्श मानते थे। वकालत करते हुए वह धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बने व मात्र 23 वर्ष की आयु में ‘प्रयाग सम्मेलन’ में सम्मिलित हुए। कांग्रेस के ‘लाहौर-अधिवेशन को सफल बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान था। पंडित लखपतराय, लाला चंदूलाल व लाला चूड़ामणि जैसे आर्य समाजी कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर समाज के हित में किए जाने वाले कार्यक्रमों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 


1887 व 1899 में देश व्यापी अकाल के पीड़ितों की सेवा में लाला जी ने स्वयं को जी-जान से झोंक दिया था। 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल-विभाजन किया तो लाला जी ने सुरेंद्रनाथ बैनर्जी और विपिन चंद्रपाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज सरकार के इस फैसले का जमकर विरोध किया। गांधी जी के असहयोग आंदोलन में ‘रोलेट एक्ट’ के विरुद्ध संघर्ष में इन्होंने ब्रिटिश सरकार की नाक में दम कर दिया था।


इसी दौरान पूरे पंजाब में इस आंदोलन को आग की भांति फैलाने में उनके द्वारा ‘लोक सेवक संघ’ की स्थापना का बहुत योगदान रहा। इसके बाद वह ‘पंजाब का शेर’ व ‘पंजाब केसरी’ के नाम से पुकारे जाने लगे।


साइमन गो बैक : 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत पहुंचा तो देश भर में इसका विरोध हुआ। 30 अक्तूबर 1928 को लाला जी के नेतृत्व में हाथों में काले झंडे लेकर असंख्य युवाओं ने ‘साइमन गो बैक’ के नारे लगाते हुए प्रदर्शन किया जिस दौरान अंग्रेजों द्वारा लाठीचार्ज से घायल हो गए। फिर भी वह एक वीर सेनापति की तरह डटे रहे और सहन करते रहे। शाम को एक जनसभा को संबोधित करते हुए लाला जी ने अपने अंतिम भाषण में कहा, ‘‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी अंग्रेज सरकार के कफन में कील साबित होगी।’’ 17 नवम्बर 1928 को यह महान आत्मा सदा के लिए  हमसे बिछुड़ गई।


लाला जी जैसे देशभक्तों के बलिदान स्वरूप ही भारत आजाद हो सका। लाला जी के बलिदान के एक महीने बाद 17 दिसम्बर 1928 को महान क्रांतिकारियों चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने ब्रिटिश सरकार सांडर्स को गोलियों से भून कर लाला जी की मौत का बदला लिया।

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