आप हनुमान जी के मंदिर में दीया क्यों जलाते हैं विचार करें, कहां तक सही है ऐसा करना

संत विनोबा जी के जीवन का एक प्रसंग है- संत विनोबा भावे ने एक व्यक्ति को हनुमान जी के मंदिर में दीया जलाते देखकर पूछा, ‘‘क्यों भाई, तुम ऐसा किसलिए करते हो? क्या तुम्हें भगवान से कुछ वर मांगना है?’’


उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘नहीं बाबा, मांगना नहीं है बल्कि मैंने कभी कुछ मांगा था और वह मुझे मिल गया, इसलिए मैं नित्य दीया जलाकर हनुमान जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं।’’


विनोबा जी उस आदमी की भावना से प्रभावित हुए। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या मांगा था तुमने?’’


उस आदमी ने सरल भाव से सारी कहानी कह सुनाई। संक्षेप में सब कुछ यूं था कि उस आदमी ने एक गरीब आदमी की जमीन पर अवैध कब्जा  किया था और फिर उसे पक्का करने के लिए मुकद्दमा भी कर दिया। मुकद्दमा कैसे जीता जाता है, इसे तो कौन नहीं जानता। बेचारा गरीब आदमी हार गया। यही उस व्यक्ति ने हनुमान जी से मांगा था।


सुन कर विनोबा जी दुखी हुए और बोले, ‘‘मेरे भाई, यदि तुम वास्तविक शांति चाहते हो तो इस दीए को जलाना छोड़ कर मन का दीया जलाओ। उस आदमी की जमीन वापस कर दो वरना तुम्हारे मन में अंधेरा ही रहेगा।’’


उसकी दृष्टि खुली एवं उसने जीती हुई जमीन भी लौटा दी।


‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि’ की एक रोचक दास्तान है- वीरान जंगल में एक सुंदर मकान था। एक साधु ने उसे देखकर सोचा-कितना सुंदर स्थान है यह, यहां बैठकर ईश्वर का ध्यान करूंगा।


एक चोर ने उसे देखा तो सोचा-वाह यह तो सुनसान स्थान है। चोरी का माल लाकर यहां रखा करूंगा।


एक दुराचारी ने देखा तो सोचा- यह तो अत्यंत एकांत स्थान है। दुराचार करने के लिए इससे उत्तम स्थान और कहां मिलेगा।


एक जुआरी ने देखकर सोचा-अपने साथियों को यहां लाऊंगा और यहां बैठकर हम जुआ खेलेंगे।


अलग-अलग दृष्टिकोण होने के कारण एक ही मकान को प्रत्येक व्यक्ति ने अलग-अलग रूप में देखा। जैसा दृष्टिकोण रहेगा, वैसी सृष्टि दिखाई पड़ेगी।

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