ईश्वर वहां भी, जहां सोचा नहीं

ईश्वर को सर्वव्यापी कहा गया है। तो फिर उन्हें ऐसी-ऐसी जगहों पर भी मिलना चाहिए, जहां इंसान उन्हें पाने की उम्मीद भी न करता हो। आइए देखें कि हमारे महाकाव्यों में इस बारे में क्या लिखा है…

शरीर का अंतिम पड़ाव 
तीर्थों, धर्मस्थलों, पवित्र स्थानों में भगवान के होने की कल्पना करना आसान है। लेकिन क्या हम एक श्मशान में उनकी कल्पना कर सकते हैं?
यह दिखाने के लिए कि मृत्यु जीवन का ही एक हिस्सा है, प्रलयंकारी भगवान शिव श्मशान में रहे और नर मुंडों की माला पहनी। उज्जैन के महाकाल मंदिर में, शिवलिंग को श्मशान से लायी राख से विभूषित किया  जाता है।

बुरे लोगों के बीच 
अच्छे लोग दिन में कई बार परमात्मा को याद करते हैं। इसलिए यह कल्पना की जा सकती है कि अच्छे लोगों के दिल में परमात्मा का वास है। लेकिन क्या बुरे लोगों में भी परमेश्वर हो  सकते हैं?
एक बार, भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय को राक्षसों के रूप में पृथ्वी पर तीन बार जन्म लेने का श्राप मिला। लेकिन, वे प्रभु को भूलना नहीं चाहते थे। इस पर मुनियों ने उनकी यह इच्छा पूरी करने का आशीष दिया। अपने पहले जन्म में वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में पैदा हुए। प्रभु के साथ उनकी शत्रुता के कारण वे हमेशा उनको स्मरण करते रहते थे। अंत में वे भगवान विष्णु के वराह और नरसिंह अवतार द्वारा मारे गए। अपने दूसरे जन्म में वे रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और भगवान राम द्वारा मारे गए। अंत में वे शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में पैदा हुए और भगवान कृष्ण द्वारा मारे गए। उस समय उन्हें श्राप से मुक्ति मिल गयी।
‘तेरा भगवान कहां है?’ राक्षस राजा हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद से पूछा। भगवान विष्णु के भक्त प्रहलाद ने जवाब दिया, ‘हर जगह’। हिरण्यकश्यप बोला, ‘फिर उसे इस खंबे में भी होना चाहिए। मैं इसे तोड़ कर देखता हूं।’ अपनी गदा से राजा ने खंबे को जैसे ही तोड़ा, भगवान विष्णु का नरसिंह अवतार उससे प्रकट हो गया। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह न तो दिन में मरेगा न रात में, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मनुष्य से मरेगा, न पशु से, न घर के भीतर मरेगा और न बाहर। इस वरदान के कारण खुद को अमर मान बैठे हिरण्यकश्यप को नरसिंह ने महल की दहलीज पर लाकर, अपनी जंघा पर रखा और संध्या के वक्त अपने नाखूनों से फाड़कर उसका अंत कर दिया।
कथा है कि ऋषि मार्कण्डेय की नियति में 16वें जन्मदिन पर मृत्यु लिखी थी। भगवान शिव के वरदान से जन्मे मार्कण्डेय बचपन से ही शिव के बड़े भक्त थे। रोज की तरह 16वें जन्मदिन पर भी वह शिवलिंग के सामने भक्ति में लीन थे। मृत्यु की घड़ी आ गयी, लेकिन उनकी भक्ति में विघ्न नहीं डाल सकी। यह देखकर यमराज खुद वहां पहुंचे और मार्कण्डेय के प्राण निकालने के लिए उन्होंने अपना फंदा फेंका। लेकिन, फंदे ने शिवलिंग को भी घेरे में ले लिया। इससे क्रोधित हुए भगवान शिव वहां खुद प्रकट हो गये और यमराज को मार्कण्डेय के प्राणों के बिना ही लौटना पड़ा।  कथाओं का यही सार है कि ईश्वर को जहां चाहे खोजो, उन्हें हर जगह पाओगे।
 

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