जन-जन के तारणहार भगवान श्रीकृष्ण   

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही जनउद्धार के लिए हुआ था। यह अद्भुत है कि उनके जन्म लेते ही पृथ्वी से अन्यायी एवं दुराचारियों का नाश हो गया था। अत: कहा जा सकता है कि कृष्ण जन्मजात विद्रोही थे या कहिए नाराज योद्धा। उनका जन्म विकट परिस्थिति में हुआ और उन्होंने उस पर जन्म से विजय पाई। उनके जन्म से पहले ही भविष्यवाणियाँ हो गई कि वह अत्याचारी का काल करने के लिए जन्में है। गरीब यादव-अहीर का बेटा, तानाशाही के खिलाफ, उसके जन्म से ही एक मायाजाल बुना गया है। एक मनोविज्ञान कि उसे बचाना, उसकी रक्षा करना आवश्यक है।  
भगवान कृष्ण विद्रोही जन्मजात है। अपने साथ बचपन से गरीब, विकलांग, किसान बच्चों को लेकर खेलने चला है। हर गलत बात पर लड़ता-झगड़ता, अन्याय के खिलाफ परचम उठाए। कृष्ण के पहले के सारे चरित्र नायक आकाश से उतरे अवतारी पुरूष हैं, देव हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अवतार कृष्ण से पूर्व की कल्पना है, कृष्ण ऐसा महान नायक है, जो निरन्तर मनुष्य होना चाहता है। कृष्ण सुकुमार, अबोध और संपूर्ण मनुष्य है। कृष्ण का चरित्र सबको प्रसन्न और सुखी देखना है। वे कहते हैं कि हमारे गाँव का दूध बाहर क्यों जाए? जब तक यहाँ रहने वाले हर नागरिक को उसकी आवश्यकतानुसार दूध न मिले। हाँ,बचने पर दूसरे गाँव भी बेचने जाओ। पर पहले यहाँ की जरूरत तो पूरी करो। ऐसे ही छोटे-छोटे किन्तु विचारणीय मुद्दों पर लड़ते-लड़ते कृष्ण का बचपन बीता है। तानाशा (कंस), जिसने लोकतंत्र की हत्या कर अपने पिता को ही कारावास में डाल रखा है, उस आततायी-अत्याचारी का वध करके भी कृष्ण गद्दी पर नहीं बैठते। कृष्ण लोकतंत्र की स्थापना करते हैं।  
निरंकुश शासन, सत्ताा के खिलाफ कृष्ण का विद्रोह जन-चेतना युव्त प्रांति है, उसमें सारे गुण प्रांतिकारियों से हैं। एक प्रांतिकारी के सारे गुण, कृष्ण में कूट-कूट कर भरे पड़े हैं। कृष्ण जी का कहना था कि अपनी रक्षा कर लोगे तभी तो दूसरा वार भी कर पाओगे। संभवत: यही कारण है कि भारतीय प्रांतिकारियों को किसी और पुस्तक की बनिस्बत (गीता) ने सर्वाधिक प्रभावित किया। अनेक प्रांतिकारी फाँसी चढ़ने से पूर्व (गीता) की पोथी ही हाथ में लिए चढ़े हैं। यह तो दृष्टा की दृष्टि है किसमें क्या देखें गीता तो बच्चों का बादल है। 
कृष्ण की प्रेम लीला भी अपरम्पार है। प्रेम में भी कृष्ण-कृष्ण है। नौजवान कृष्ण को राधा ही भली लगती थी।  
यूँ भी गोरी के अपेक्षा साँवली सुन्दर होती है। राधा गोरी थी, बाल कृष्ण तो राधा में रमा रहा। युवा कृष्ण के मन पर कृष्णा छाई रही….। क्या गोरी क्या साँवरी? प्रेम के इतिहास में इससे साहस की भला बात क्या होगी कि सत्यभामा, रूक्मणी और अन्य सोलह हजार कन्याओं का पति, राधा से न सिर्फ प्रेम करता है, अपितु उसे (जनपूज्य) भी बना देता है। राधा उसकी आराध्या, प्राणप्रिया ही नहीं, प्राणप्रेरक, प्रेरणास्रोत, शव्ति भी है।  
राधा-कृष्ण न सिर्फ एक नाम है, अपितु भारतीय दर्शन चिन्तन मनन और प्रेम साहित्य में संयुव्त-पूजन परंपरा भी है। रूक्मणी को भी लाए कृष्ण तो खुलकर, खम ठोक कर, छुपकर नहीं और रूक्मिणी भी कितने साहस से प्रेमपत्रों से अपने ही अपहरण के लिए इतना खुला उन्मुव्त उद्वाम साहसी या दु:साहसी आमंत्रण भेजती है, जो आज भी संभव नहीं।  कृष्ण 16 हजार विधवाओं को भी अपना नाम, पत्नी का दर्जा देकर सम्मान प्रदान करते हैं उसके पीछे की तार्किक वैज्ञानिक विवेचनाएँ भी अपनी जगह है। 
कृष्ण पूर्णपुरूष हैं, मर्द हैं-नायक हैं, योगी भी है, यथार्थ भी। जो करते हैं खुलकर करते हैं, छुपकर नहीं। राम और कृष्ण में जो मौलिक अंतर है, वह यही कि राम शान्त, मीठे और सुसंस्कृत युग के नायक हैं और कृष्ण जटिले, तीखे और प्रखर बुद्धियुग के नायक हैं।  
असंख्य-संधि और असंख्य-विग्रह, देश-प्रदेशों के संबंध उसे बदलने पड़े, शठम् प्रति शाठय़ समाचरेत नीति में भी बड़ी मेहनत और पराप्रम उसे करना पड़ता था। अपने लक्ष्य-संधान हेतु इन सारे प्रसंगों में एक और बात बेहद मजेदार है, कृष्ण कभी भी रोते नहीं, आँसू नहीं बहाते, कमजोर या भावुक नहीं होते।  
कृष्ण कभी रोते नहीं, हाँ, आँखें जरूर उनकी डबडबा आती हैं, मगर हर उस प्रसंग पर जहाँ अन्याय-अत्याचार हो रहा है। जब भी किसी नन्हे बच्चे को सात-सात महा-पराप्रमी योद्धाओं ने चप्रव्यूह में घेर कर मारना चाहा है। उनकी आँखें डबडबा आईं हैं। संसार में एक कृष्ण ही है जो दर्शन को भी (गीत) बना देता है, गीता बना देता है। जो नर-नारी संबंधों को प्रेम बना देता है। कृष्ण जन-जन के मन-मन के आराध्य हैं।  

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