तीन तलाक पर खत्‍म हो सकता है टकराव, बस बोर्ड उठा ले ये कदम?

समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) स्वतंत्र भारत के कुछ सबसे विवादित मुद्दों में से एक रहा है। वर्तमान में केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी और उसके पितृ संगठन द्वारा इस मुद्दे को लंबे समय से उठाया जाता रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू कराना उनके हिन्दुत्व के एजेंडे का एक प्रमुख हिस्सा है, इसीलिए वर्तमान सरकार जब समान नागरिक संहिता की बात कर रही है, तो उसकी नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं।  दूसरी तरफ मुस्लिम महिलाओं की तरफ से समान नागरिक संहिता नहीं, बल्कि एक तरफा तीन तलाक़, हलाला व बहुविवाह के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है, उनकी मांग है कि इन प्रथाओं पर रोक लगाई जाए और उन्हें भी खुला का हक मिले ।एक और पक्ष ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे मुस्लिम संगठनों का है जो किसी भी बदलाव को इस्लाम के खिलाफ बता रहे हैं।

दरअसल, मुस्लिम औरतों की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक है। मर्दों के लिए यह बहुत आसान है कि तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह दिया और सब-कुछ खत्म। इसके बाद मर्द तो दूसरी शादी कर लेते हैं, लेकिन आत्मनिर्भर ना होने की वजह से महिलाओं का जीवन बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है। तलाक के बाद उन्हें भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता नहीं मिलता और अनेकों मामलों में तो उन्हें मेहर भी वापस नहीं दी जाती है। कई मामलों में तो ई-मेल, वॉट्सएप,फोन, एसएमएस के माध्यम से या रिश्तेदारों, काजी आदि से कहलवा कर तलाक दे दिया जाता है। इसी तरह से हलाला का चलन भी एक अमानवीय है।दुर्भाग्यपूर्ण कई मुस्लिम तंजीमों और मौलवीयों द्वारा तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह का समर्थन किया जाता है।  सुप्रीमकोर्ट पहले भी कह चुका है कि अगर सती प्रथा बंद हो सकती है, तो बहुविवाह एवं तीन तलाक जैसी प्रथाओं को बंद क्यों नही किया जा सकता। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट तलाक या मुस्लिम बहुविवाह के मामलों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के मुद्दे की समीक्षा कर रहा है।

 

दरअसल, उत्तराखंड की रहने वाली शायरा बानो सहित कई महिलाओं ने ‘तीन बार तलाक’ को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट यह समीक्षा करने पर राजी हो गया है कि कहीं तीन तलाक, बहुविवाह, निकाह और हलाला जैसे प्रावधानों से कहीं मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने जवाब दिया था कि ‘वह तीन तलाक का विरोध करती है और इसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है’। लेकिन इसके बाद विधि आयोग ने 16 सवालों की लिस्ट जारी कर ट्रिपल तलाक़ और कॉमन सिविल कोड पर जनता से राय मांगी थी, जिस पर विवाद हो गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे समाज को बांटने वाला और मुसलमानों के संवैधानिक अधिकार पर हमला बताते हुए इसके बायकॉट करने का ऐलान कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाबी हलफनामा में बोर्ड ने कहा कि एक साथ तीन तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर किसी तरह का विचार करना शरीयत के खिलाफ है। इनकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन की बात बेमानी है। इसके उलट, इन सबकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार और इज्जत की हिफाजत हो रही है। अपने हलफनामे में बोर्ड ने तर्क दिया है कि “पति छुटकारा पाने के लिए पत्नी का कत्ल कर दे, इससे बेहतर है उसे तलाक बोलने का हक दिया जाए।”  मर्दों को चार शादी की इजाज़त के बचाव पर बोर्ड का तर्क है कि, “पत्नी के बीमार होने पर या किसी और वजह से पति उसे तलाक दे सकता है। अगर मर्द को दूसरी शादी की इजाज़त हो तो पहली पत्नी तलाक से बच जाती है।” पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे पर सरकार से पर जनमत संग्रह करवाने की भी मांग की है। जाहिर है बोर्ड किसी भी बदलाव के खिलाफ है।

कुल मिलाकर, इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज भी बंटता हुआ नजर आ रहा है। ज्यादातर मौलाना, उलेमा और धार्मिक संगठन तीन बार बोलकर तलाक देने की प्रथा को जारी रखने के पक्ष में हैं, तो दूसरी तरफ महिलाएं और उनके हितों के लिए काम करने वाले संगठन इस प्रथा को पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इसके खात्मे के पक्ष में हैं। उनका तर्क है कि इस्लाम में जायज़ कामों में तलाक को सबसे बुरा काम कहा गया है और हिदायत दी गई है कि जहां तक मुमकिन हो तलाक से बचो और यदि तलाक करना ही हो तो हर सूरत में न्यायपूर्ण ढंग से हो और तलाक में पत्नी के हित और उसके जीवनयापन के इंतजाम को ध्यान में रखा जाए।

दरअसल, एक झटके में तीन बार 'तलाक, तलाक, तलाक' बोल कर बीवी से छुटकारा हासिल करने का चलन दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया में ही है और वहां भी ज्यादातर सुन्नी मुसलमानों के बीच ही इसकी वैधता है। मिस्र पहला देश था, जिसने 1929 में तीन तलाक पर रोक लगा दिया था। आज ज्यादातर मुस्लिम देशों जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं ने अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी है। जानकार श्रीलंका में तीन तलाक के मुद्दे पर बने कानून को आदर्श बताते हैं। तकरीबन 10 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले श्रीलंका में शौहर को तलाक देने के लिए काजी को इसकी सूचना देनी होती है। इसके बाद अगले 30 दिन के भीतर काजी मियां-बीवी के बीच सुलह करवाने की कोशिश करता है। इस समयावधि के बाद अगर सुलह नहीं हो सके तो काजी और दो चश्मदीदों के सामने तलाक हो सकता है।

 

एक तरह से देखा जाए तो हमारे देश में तीन तलाक के मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल सुविधा की राजनीति कर रहे हैं और इस मामले में उनका रुख अपना सियासी नफा-नुकसान देखकर ही तय होता है। वर्तमान में केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार है, जिसे लेकर अल्पसंख्यकों में आशंका की भावना व्‍याप्‍त है, और इसके किसी भी कदम को लेकर उनमें भरोसा नहीं है। सवाल यह भी उठ रहा है कि जिस समय मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे संगठनों का तीन तलाक की रिवायत को खत्म करने का अभियान जोर पकड़ रहा था और इसका असर भी दिखाई पड़ने लगा था, ऐसे में सरकार द्वारा विधि आयोग के माध्यम से समान नागरिक संहिता का शगूफा क्यों छोड़ा गया? इससे तो तीन तलाक का अभियान कमजोर हुआ है। इससे समाज में धुर्वीकरण होगा मुस्लिम समाज के भीतर से उठी प्रगतिशीलता और बदलाव की आवाजें कमजोर पड़ जाएंगी।

सितंबर माह में केरल के कोझिकोड में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में है, जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुआ कहा था कि “दीनदयाल जी का कहना था कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करो न ही तिरस्कृत करो बल्कि उनका परिष्कार किया जाए। यहां “परिष्कार” शब्द पर ध्यान देने की जरूरत है जिसका मतलब होता है “ प्यूरीफाई ” यानी शुद्ध करना। हिंदुत्ववादी खेमे में “परिष्कार” शब्द का विशेष अर्थ है जिसे समझना जरूरी है।

दरअसल, हिंदुत्व के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर मानते थे कि ‘चूंकि इस्लाम और ईसाईयत का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था, इसलिए मुसलमान और ईसाइयों की भारत पितृभूमि नहीं हैं, उनके धर्म, संस्कृति और पुराणशास्त्र भी विदेशी हैं इसलिए इनका राष्ट्रीयकरण (शुद्धिकरण) करना जरूरी है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने “परिष्कार” शब्द का विचार सावरकर से लिया था जिसका नरेंद्र मोदी उल्लेख कर रहे थे। पिछले दिनों संघ परिवार द्वारा चलाया “घर वापसी अभियान” खासा चर्चित हुआ था। संघ परिवार और भाजपा का मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंता, समान नागरिक संहिता का राग इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए।

इधर, दूसरी ओर हर बार जब मुस्लिम समाज के अंदर से सुधार की मांग उठती है, तो शरिया का हवाला देकर इसे दबाने की कोशिश की जाती है। इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन किसी संवाद और बहस के लिए भी तैयार नहीं होते हैं, इसलिए सबसे पहले तो जरूरी है कि तीन तलाक और अन्य कुरीतियों को लेकर समाज में स्वस्थ्य और खुली बहस चले और अन्दर से उठाए गए सवालों को दबाया ना जाए। इसी तरह से अगर समाज की महिलाएं पूछ रही हैं कि चार शादी के तरीकों,  बेटियों को जायदाद में उनका वाजिब हिस्सा देने जैसे मामलों में कुरआन और शरियत का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है, तो इन सवालों को सुना जाना चाहिए और अपने अंदर से ही इसका हल निकालने की कोशिश की जानी चाहिए।

यकीनन, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठनों को संघ परिवार की राजनीति भी समझनी चाहिए जो चाहते ही हैं कि आप इसी तरह प्रतिक्रिया दें ताकी माहौल बनाया जा सके, इसलिए बोर्ड को चाहिए की वे आक्रोश दिखाने के बजाये सुधारों के बारे में गंभीरता से सोचे और ऐसा कोई मौका ना दे जिससे संघ परिवार अपनी राजनीति में कामयाब हो सके। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दूसरे मुस्लिम देशों में हुए सुधारों का अध्ययन करने की भी जरूरत है।

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