परिवर्तनशील संसार का शाश्वत सुख 

मनुष्य जीवन अद्भुत है। इस जीवन के रहते जहां कुछ एक-दूसरे से प्यार करते हैं, वहीं कुछ नफरत करते हुए दिखते हैं। यहां तक कि इंसान, इंसान से भाग रहा है। आज का मानव हर दौड़ में आगे निकल जाने का प्रयास करता रहता है। पर यह दौड़ कब तक? वह कहीं न कहीं जाकर टूट जाता है। यह सबके साथ होता है। आप जिसे चाहते थे, वह आपसे छीन लिया जाता है। जो आपकी प्रिय वस्तु होती है, उसी से आपको नफरत हो जाती है। दोस्त दुश्मन बन जाता है और दुश्मन दोस्त। यह एक व्यवस्था है। आज सभी आपके साथ हैं और कल कोई नहीं रहेगा। यह एक विडंबना है, परंतु यही सत्य है। आप जीवन की यात्रा में हैं। आप चाहें तो रुक सकते हैं, चाहें तो चल सकते हैं। दोनों स्थितियों में चाह है। एक दूसरे व्यक्ति के लिए तो एक स्वयं के लिए। एक जोड़ता है, तो एक तोड़ता है। एक अस्तित्व है, एक विरक्ति है। दोनों से आप जुड़े हैं। आप चाहें तो छोड़ सकते हैं, चाहें तो तोड़ सकते हैं। गति-काल और योग-वियोग प्रकृति के गुण हैं। संस्कार, प्रारब्ध और भोग कर्म की देन हैं। इन सबसे व्यक्ति का कहीं न कहीं संबंध जुड़ा है। फर्क इतना है कि दोनों एक-दूसरे को जानने का प्रयास नहीं करते हैं। जिसने प्रयास किया, उसने पाया। यह तो सर्वथा सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण भी निश्चित है। यह एक कर्मभूमि है। सबका सत्य इसी कर्मक्षेत्र में पड़ा है। अगर आपको यहां कोई पुन: मिल गया, तो उसे रास्ता बता दो कि उसे कहां तक, किस मार्ग से जाना है। यदि यह संभव नहीं है तो उसे छोड़ दो। अपने कर्मों के अनुकूल वह स्थिति को प्राप्त कर लेगा। मानव रूप में शरीर धारण करने से कुछ नहीं होता है। शरीर तो मिलता ही रहता है, लेकिन मिलने के बाद ऐसा कुछ कर लिया जाए कि लोग जाने के बाद भी हमें याद रखें। हमारे संस्कार भी कर्मों के अनुसार ही बनते हैं। संस्कार जो बना हुआ है, वह आज आपके होने के कारण का बोध कराता है और आज हमारा कर्म कुछ बन जाने की व्यवस्था करता है। परिवर्तनशील संसार में जो शाश्वत सुख दिला सके, बस उस परमानंद को पकड़ने की कोशिश करें। जीवन अवश्य ही सफल होगा।

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