श्रद्धाजंलि: जब मंगल पांडे की ललकार से फिरंगियों के छूटे पसीने

लखनऊ: अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक कर स्वतंत्रता संग्राम की अलख जलाने वाले अमर शहीद मंगल पाण्डेय को उनके 160वें बलिदान दिवस पर समूचे उत्तर प्रदेश में भावभीनी श्रद्धाजंलि अर्पित की गयी। लखनऊ, कानपुर, वाराणसी और जौनपुर समेत सूबे के कई जिलों में इस मौके पर प्रभात फेरी निकाली गयी और गोष्ठी का आयोजन कर शहीद के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया। 

बलिया में अमर शहीद की जन्मस्थली नगवा गांव में साहित्यकारों, इतिहासविदों और प्रबुद्ध नागरिकों ने प्रतिमा पर माल्यापर्ण कर उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि दी। जौनपुर में कलेक्ट्रेट स्थित क्रान्ति स्तंभ पर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी और लक्ष्मी बाई ब्रिगेड के कार्यकर्ताओं और उपस्थित लोगों ने क्रान्ति स्तंभ पर मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर मंगल पाण्डे के चित्र पर माल्यार्पण किया। 

लखनऊ में आयोजित गोष्ठी में वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुये कहा कि 30 जनवरी 1831 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में जन्मे मंगल पाण्डेय बंगाल के नेटिव इफेन्ट्री में एनआई की 34 वीं रेजीमेण्ट में सिपाही के पद पर तैनात थे। बंगाल इकाई में जब इन्फील्ड पी-53 राइफल में नई किस्म के कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो हिन्दू-मुस्लिम के सैनिकों के मन में बगावत के बीज अंकुरित हो गये। उस समय इन कारतूसों को मुंह से खोलना पड़ता था। भारतीय सैनिकों में ऐसी खबर फैल गयी कि इन कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है। कहा गया कि अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए यह तरकीब अपनायी थी। 

वक्ता ने कहा कि जब इसकी जानकारी मंगल पाण्डेय को हुई तो 29 मार्च 1857 बैरकपुर छावनी से अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। उनकी इस ललकार पर उस समय ईस्ट इण्डिया कंपनी में खलबली मच गयी और उनका शासन हिल उठा था। अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय तथा उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद पर कुछ समय में ही काबू पा लिया था, लेकिन इन लोगों की जांबाजी ने पूरे देश में उथल-पुथल मचा दिया। इससे तंग आकर अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को आठ अप्रैल 1857 तथा उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद पाण्डेय को 21 अप्रैल 1857 को फांसी पर लटका दिया गया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने उस समय हिन्दुस्तानियो के विद्रोह को दबा दिया था। मगर इसका बीज आजादी का वृक्ष बनकर निकला।

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