जीवन में दैन्यता और विनम्रता बढ़ाने के लिए अपने कर्मों को शुभ और मंगलमय बनाएं
इन्दौर । हमारे कोई भी कर्म तभी शुभ और मंगलमय होंगे, जब उसके प्रसाद स्वरूप हमारे जीवन में दैन्यता और विनम्रता बढ़ जाए। जीवन में विनम्रता ही वह गुण होता है, जो भगवान को रिझा सकता है। दैन्यता और विनम्रता बढ़ाने के लिए अपने कर्मों को शुभ और मंगलमय बनाने की जरूरत है। बिना सत्संग के जीवन में विनम्रता का गुण नहीं आ सकता। बड़ा हो जाना बहुत आसान है। खजूर का पेड़ भी बड़ा होता है लेकिन यह भी देखें कि हमारे कर्मों से किसी को छाया मिल रही है या नहीं। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हमने कई स्वाभाविक गुण खो दिए हैं। संत के संग से जीवनशैली अनुशासित होती है। सत्संग से मन में अनुचित विचारों का प्रवेश नहीं होता। कथा के शब्दों में दैवीय ऊर्जा होती है।
वृंदावन से आए प्रख्यात कथाव्यास एवं परम रसिक श्रीहित अम्बरीशजी ने रवींद्र नाट्यगृह में अग्रवाल महिला मंडल की मेजबानी में आयोजित तीन दिवसीय भक्तमाल कथा के द्वितीय दिवस पर उपस्थित भक्तों को संबोधित करते हुए ऐसी अनेक दिव्य बातें कही। महिला मंडल की ओर से श्रीमती निर्मला अग्रवाल, शीला अग्रवाल, कृष्णा गर्ग, रमा गर्ग, राजेश अग्रवाल आदि ने प्रारंभ में संतश्री की अगवानी की। निवृत्तमान अध्यक्ष शोभा जैन, अध्यक्ष प्रेमलता अग्रवाल सहित मंडल की बहनों ने व्यवस्थाएं संभाली। समाजसेवी शंभूदयाल अग्रवाल, विष्णु बिंदल, टीकमचंद गर्ग, किशनलाल ऐरन, पी.डी. अग्रवाल सहित समाज के अनेक वरिष्ठ बंधु भी उपस्थित थे। रविवार 19 मई को अपरान्ह 4 से 7 बजे तक समापन सत्र की कथा होगी। श्रोताओं से ‘पहले आएं, पहले पाएं’ के आधार पर प्रवेश का आग्रह किया गया है।
अम्बरीशजी ने कहा कि संसार में रहते हुए कई बार हमें अवांछित और अनचाहा भी मिल जाता है। इसे रोकने के लिए संसार से भागना नहीं है, यहीं रहकर युक्ति से मुक्ति पाने का प्रयास करना है। जीवन को साधने की कला हमें शास्त्रों और गुरूओं के साथ सत्संग से भी मिलती है। मन को हम जो कुछ भी देते हैं, वह ग्रहण कर लेता है। विचार बुद्धि करती है। बुद्धि सबके पास है लेकिन जिससे अपने हित और कल्याण के विचार आते हैं वह कभी कभी सो जाता है। संत की वाणी इसे जागृत बना देती है। हमारे संकल्प में परमार्थ और शुभता का भाव होना चाहिए। ऐसा होने पर प्रकृति भी अपनी ऊर्जा उसमें मिला देती है। प्रेम दो को एक कर देता है। प्रेम अंधा नहीं होता। प्रेम दोष नहीं देखता, इसलिए उसे अंधा कहा जाता है। हमारी वाणी में सामथ्र्य तभी आएगा, जब उसमें सबके सुख और कल्याण की भावना होगी। भगवान कहीं नहीं खोता, खोते तो हम हैं। हमारे अंदर विचारों और संकल्पों का बहुत शोर है। हम स्वयं को नहीं जानते, स्वयं को नहीं खोजना चाहते और यह दोष लगातार हम सबमें बढ़ता जा रहा है। हमने शास्त्रों और गुरूओं का आदर करना छोड़ दिया है। सिर पर आंचल भी अब बोझ लगने लगा है। जड़ से अलग होकर कोई भी वृक्ष फल-फूल नहीं सकता। जीवन में स्वतंत्रता के साथ अनुशासन भी जरूरी है। हमारा व्यवहार और चिंतन भी बदलता है। अनुशासन कठोर है, कठिन है पर उसका परिणाम सुखद है। संत तो हर जगह सुलभ हैं, लेकिन उसी संत का संग दुर्लभ है। हम मंदिर भी जाते हैं तो अपने अहंकार का बोझ लेकर। पुजारी से सेटिंग के चलते यदि सब लोगों को छोड़कर हमें पहले प्रसाद मिल जाए तो हम बड़े आदमी नहीं बन जाएंगे।
:: शब्दों में बड़ी ताकत ::
अम्बरीशजी ने कहा कि शब्द को ब्रम्ह भी कहा गया है। जिन शब्दों से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है, वे सत्संग में ही मिलेंगे। शब्दों में बड़ी ताकत होती है। शब्दों में ताकत नहीं होती तो किसी के गाली देने से हमें कष्ट नहीं होता और प्रशंसा सुनने से खुशी नहीं होती। कलियुग में कोई साधना हो या न हो, लेकिन शब्द की आराधना का महत्व अवश्य है। हजार अवगुण होते हुए भी कलियुग को केवल नाम आधारा कहा गया है। केवल राम और कृष्ण का नाम रटने मात्र से हमारी साधना सार्थक हो सकती है। माला हाथ में ले लेना सबके लिए संभव है पर माला के साथ मन को जोड़कर रखना सबके भाग्य में नहीं होता, यह गुरूकृपा से ही संभव है।