ज्ञान का सदुपयोग परोपकार में है, अहंकार उत्पन्न करने में नहीं

जानें धर्म के साथ एक बार आदि शंकराचार्य समुद्र के किनारे बैठे हुए थे। उनकी शिष्य मंडली में से एक चाटुकार शिष्य उनके पास आया और कहने लगा गुरुदेव आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे प्राप्त किया होगा, यह सोचकर हमें आप पर आश्चर्य और गर्व होता है। शंकराचार्य ने उससे कहा, ''तुम्हें किसने कहा कि मेरे पास ज्ञान का भंडार है।''

शिष्य का सिर शर्म से झुक गया। यह वार्तालाप सुनकर अन्य शिष्य भी उनके पास आ गए। शिष्यों के अंदर ज्ञान का अहंकार उत्पन्न न हो, यह समझाने के लिए शंकराचार्य ने अपने हाथ में एक पतली टहनी लेकर उसे समुद्र में डुबोया, उसे कुछ देर बाद निकाला और शिष्य से पूछा, ''इसने कितना पानी ग्रहण किया।'' कुछ ने कहा, ''कुछ भी नहीं, वहीं कुछ ने कहा-मात्र कुछ बंदें। शंकराचार्य ने कहा, ''मैं भी ज्ञान का सागर में डुबकी लगाता हूं और बाहर निकलने पर मुझे अनुभूति होती है कि मैं कितना कम जानता हू। मैं लगातार ज्ञान ग्रहण करने की कोशिश करता रहता हूं।''

सच्चा ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान की सीमा जानता है। इसी कारण उसमें अहंकार जन्म नहीं ले पाता। अल्पज्ञ अपने आपको सर्वज्ञानी समझ कर अहंकारी हो जाता है। मनुष्य में ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता का कभी अंत नहीं होता, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। हमें हर समय कुछ न कुछ ग्रहण करते रहना चाहिए। अत: ज्ञान का सदुपयोग परोपकार में हो अहंकार उत्पन्न करने में नहीं।

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