आरे की कटाई पर मुंबई में बवाल, क्या अपनी सियासी ताकत खो रही है शिवसेना?
दो हफ्ते पहले शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को पूरा भरोसा था कि आरे कॉलोनी में प्रस्तावित मेट्रो कार शेड का वही नतीजा निकलेगा जो कोंकण में नाणार रिफाइनरी प्रॉजेक्ट का हुआ था। लोगों के भारी विरोध के बाद इस प्रॉजेक्ट को बंद कर दिया गया था। हालांकि, जब शुक्रवार देर रात से शुरू होकर शनिवार सुबह तक आरे के पेड़ों पर आरियां चलती रहीं तो शिवसेना का दावा, दावा ही रह गया।
पहले सीटों, अब आरे पर समझौता
कुछ दिन पहले ही शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शिवसेना ने गठबंधन में समझौता किया है। इसीलिए, जहां बीजेपी 288 में से 164 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, वहीं सेना को न सिर्फ 124 सीटों से संतोष करना पड़ा है बल्कि उसने अपने चार गढ़ भी गंवा दिए हैं। आरे पर पार्टी के स्टैंड को मिला ताजा झटका भी उसकी साख पर सवाल उठा रहा है।
'बिना दांत वाला शेर'
उद्धव के बेटे और ठाकरे परिवार के पहले चुनावी प्रत्याशी आदित्य ठाकरे हमेशा से ही आरे में कारशेड के विरोध में रहे हैं लेकिन शनिवार को उन्हें लोगों का खासा गुस्सा झेलना पड़ा। उन पर और उद्धव पर आरोप लगाया जा रहा है कि सत्ता में होने के बावजूद सेना सिर्फ इस मुद्दे पर हीलाहवाली कर रही है। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने उन्हें 'बिना दांत का शेर' तक कह डाला।
'कहां हैं आक्रामक तेवर?'
विपक्ष ने भी इस मुद्दे को लेकर सेना को यह कहते हुए निशाने पर लिया है कि आमतौर पर आक्रामक तेवर अपनाने वाली सेना का वह रुख अब कहां है। कांग्रेस पूर्व मुंबई अध्यक्ष संजय निरूपम ने कहा- 'सेना द्वारा शासित बीएमसी ने पेड़ों को काटने की इजाजत दी। सेना सिर्फ बोलती है और दिखाना चाहती है कि वह आरे को बचाना चाहती है।' कांग्रेस प्रवक्ता सचिन सावंत ने भी सवाल किया है कि सेना के लिए पेड़ बचाना ज्यादा जरूरी है या बीजेपी से गठबंधन।
छवि बचाने की कोशिश
बाद में उद्धव ने मीडिया के सामने कहा- 'जो आज हो रहा है, जो कल हो रहा था और जो कल होगा, मैं उस पर विस्तृत जानकारी लूंगा कि हालात क्या है और सीधे तौर पर इस मुद्दे पर बात करूंगा। एक बार हमारी सरकार सत्ता में आ जाए, हम आरे जंगल के हत्यारों से सबसे अच्छे तरह से निपटेंगे।
अब फैसले नहीं कर सकती सेना?
हालांकि, चुनावों में ज्यादा वक्त नहीं बचा है और सेना पर पहले ही अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव है, अगर वह राजनीति में अपना स्थान खोना नहीं चाहती है। जानकारों का मानना है कि उसके प्रदर्शन में इस मुद्दे की टाइमिंग की बड़ी भूमिका रहेगी। एक विश्लेषक ने बताया है, 'राजनीतिक दृष्टिकोण से ऐसा इशारा जा रहा है कि सेना अब फैसले नहीं कर सकती है। इससे लगता है कि सेना का सिक्का अब नहीं चल रहा है।'