इसलिए महाभारत के युद्ध में भगवान कृष्ण ने तोड़ा था अपना वचन
चंचल मन एक बार कोई फैसला ले भी ले तो उस पर अधिक समय तक टिका नहीं रहता और उसे बदलने के विचार मन को मथते रहते हैं। कई बार हमारे पास जो विकल्प होते हैं, उनमें अंतर बहुत कम का होता है और जब भी दो में से एक को चुनना होता है, हम दुविधा में पड़ जाते हैं। दोनों में से कौन-सी चीज ज्यादा महत्वपूर्ण है या आगे चलकर अधिक हितकर साबित होगी, यह ऊहापोह रहती है। कई बार ऐसी परिस्थितियों में किए गए चयन ने इतिहास को बदल कर रख दिया है।
चयन का असमंजस कभी अच्छे या बुरे के बीच नहीं होता। ऐसी स्थिति हमेशा कम अच्छे और अधिक अच्छे अथवा कम बुरे और अधिक बुरे के बीच चुनने की मजबूरी से पैदा होती है। मानवीय जीवन की गरिमा उच्चतर मानवीय मूल्यों के चयन में है। इसलिए लोअर वैल्यू का त्याग होना चाहिए। सजग व्यक्ति के जीवन का यही दृष्टिकोण होता है।
भीष्म ने वचन दिया कि जो भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठेगा, मैं उसी का साथ दूंगा, उसी के पक्ष में युद्ध करूंगा। परिणाम यह हुआ कि दुर्योधन जैसे दुष्ट के गद्दी पर बैठने के बाद भी वह केवल वचन-पालन की रक्षा के लिए सत्य को पराजित करने के लिए उठ खड़े हुए। वचन कृष्ण ने भी दिया था सुदर्शन-चक्र नहीं उठाने का, लेकिन जब उन्होंने देखा कि भीष्म के प्रहार के कारण युद्ध निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया है और सत्य पराजित होने के कगार पर है, तब उन्होंने चक्र उठा लिया था। भीष्म के प्रश्न करने पर कृष्ण ने कहा था, ‘वचन पालन और सत्य की जीत में से जब एक को चुनने की स्थिति आई तो मैंने सत्य को चुना, वचन-पालन को त्याग दिया।’
मान लें कि आपके समक्ष अपने प्रेम और परिवार या समाज के बीच किसी एक को चुनने की स्थिति आ जाए तो परिवार या समाज को ही चुना जा सकता है। क्योंकि यहां प्रश्न लगाव के छिन्न-भिन्न होने से बचाने का है। परिवार और समाज के साथ हमारा लगाव होता है, जो किसी व्यक्ति विशेष के साथ संबंध से अधिक मूल्यवान है। परिवार और समाज हायर ह्यूमन वैल्यू है। लेकिन यदि परिवार और सत्य में से एक को चुनना हो तो फिर सत्य को ही चुना जा सकता है क्योंकि प्रेम चौथे तल यानी हृदय-चक्र की बात है जबकि परिवार और समाज का संबंध छठे तल अर्थात आज्ञा-चक्र से है।
सत्य का, साधना का आध्यात्मिक विकास का चुनाव इससे भी ऊपर सातवें तल यानी सहस्रार-चक्र की बात है। मीरा के समक्ष भी परिवार और गुरु में से चुनाव का असमंजस पैदा हुआ था। एक तरफ परिजन थे तो दूसरी तरफ मोक्ष था। अपनी दुविधा सामने रखने पर तुलसी ने उन्हें जवाब भेजा- परमात्मा जिनको प्रिय नहीं है, वे शत्रुस्वरूप हैं और उनका त्याग कर दिया जाना चाहिए- जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरीसम, जदपि परम सनेही।
प्रह्लाद ने पिता का, भरत ने माता का और विभीषण ने अपने भाई का परित्याग उच्चतर मूल्यों के लिए ही किया था। जीवन में जब भी दो मूल्यों के बीच टकराव दिखे, उनमें से किसी एक के चुनाव को लेकर द्वंद्व की स्थिति पैदा हो, तो उच्चतर मूल्य का चुनाव करना ही श्रेयस्कर है।