दुधमुंही बच्ची को पीठ पर लादकर सड़कें बुहारती थी 17 साल की मां

मैं झाड़ू लगाती रहती हूं, उसी वक्त कोई कार फर्राटे से निकलती है. खिड़की से कोई बोतल या कोई रैपर बाहर फेंक देता है. मैं वापस लौटकर फिर उसी जगह को साफ करती हूं. ये रोज होता है. पहले-पहल गुस्सा आता था, रोना भी आता था. अब आदत हो गई है.

चाय की टपरी पर बड़ा गिलास भरकर चाय पीती रीता को देखकर कोई अंदाजा भी  नहीं लगा सकता है कि ये दिन के 8 घंटे सड़कों को बुहारते हुए बिताती हैं. चाहे कड़कड़ाती ठंड हो या फिर पिघलती धूप.

पंद्रह साल की थी, जब शादी होकर मेरठ से दिल्ली आई. घर की जिम्मेदारियां इतनी सारी थीं लेकिन गरीब के घर की औरत काम ज्यादा होने की शिकायत नहीं कर सकती.

मैं सारे काम करती हुई थक जाती. फिर दो सालों के अंदर बेटी पैदा हो गई. मैं खुद 17 साल की थी और मेरी एक बेटी भी थी. घरवाले की कमाई उतनी ज्यादा नहीं थी. वो भी सड़कों पर झाड़ू लगाता था. कई बार बेटी की दवा के लिए पैसे पूरे नहीं पड़ते थे.

मैंने पति से कहा कि वो मुझे भी अपने जैसी नौकरी दिलवा दे. पति पहले तो राजी नहीं हुआ कि जो हमेशा से घर पर रही, वो बाहर काम कैसे करेगी लेकिन बेटी की जरूरत और मेरी जिद को देखके मान गया.

तब से मैं भी सड़कों को झाड़ने-बुहारने का काम करती हूं. बेटी को संभालने के लिए कोई नहीं होता था तो उसे पीठ पर बांधकर झाड़ू लगाती. थक जाती थी तब अपने घर की बहुत याद आती. वहां तो किसी का बच्चा किसी और के हाथ में पलता है और पता भी नहीं चलता है. बड़े शहरों में चमक से ज्यादा तकलीफें हैं अगर आप गरीब हैं.

अब झाड़ू लगाते हुए 12 साल बीत गए. मौसम से अब कोई फर्क नहीं पड़ता, ठंड हो या गर्मी या फिर बारिश, सड़कें तो साफ होनी चाहिए. अब सड़कों से भी मुझे अपनी झुग्गी की तरह प्यार हो गया है. जितना साफ उसे रखती हूं, उतना ही साफ सड़क को भी रखने की कोशिश करती हूं.

Leave a Reply