नारी शिक्षा के जनक जोतिबा फुले
(28 नवम्बर : पुण्य तिथि पर विशेष)
महात्मा जोतिबा गोविंद राव फुले 19वीं सदी के एक सक्रिय और उत्साही समाज सुधारक थे। वह एक महान शिक्षाशास्त्री थे। उन्होंने किसानों,श्रमिकों,महिलाओं और दलितों की शोचनीय स्थिति के मूल कारण को खोजने का हर संभव प्रयास किया। महिलाओं की शिक्षा,स्वतंत्रता और समानता के लिए उन्होंने अनेक ठोस कदम उठाए। जोतिबा फुले का जन्म महाराष्ट्र के जिला सतारा कटगुन गांव के घोरे परिवार में हुआ था। अकाल की विभीषका से बचने के लिए उन के पूर्वज पूना आ कर बस गए थे। वे पुना के पेशवाओं के यहां माली का काम करते थे। जोतिबा का जन्म 11 अप्रैल 1827 को हुआ। अभी जोतिबा एक वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी माता का देहान्त हो गया। वर्ष 1840 में उनका विवाह सावित्रीबाई से हुआ। प्राईमरी स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद जोतिबा को स्थानीय स्कॉटिश मिशन हाई स्कुल में प्रवेश दिलवाया गया। यहीं से उन्होंने 1847 में दसवीं की परीक्षा पास की। शिक्षा समाप्त करने के बाद वह फूलों के व्यवसाय में अपने पिता का हाथ बटाने लगे।
वर्ष 1848 में उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। वह अपने एक उच्च वर्ग के मित्र की बारात में गए। इस शुभ समारोह में उनके भाग लेने के कारण दुल्हे के किसी संबंधी ने, उनकी निची जाति के कारण उनका बहुत अपमान किया। इससे उनके मन में जातिप्रथा में भेदभाव को ले कर बहुत आक्रोश पैदा हुआ। उन्होंने सोचा कि सामाजिक भेदभाव और असमानता की भावना दूर करने के लिए आवश्यक है कि निम्न जातियों और महिलाओं को अधिक से अधिक शिक्षित किया जाए। वह तुरन्त समाज को बदल डालने के काम में जुट गए। बाद में महात्मा जोतिबा फूले के नाम से सामाजिक क्रान्ति के जनक कहलाए। समाज को एक अच्छा भविष्य देने के लिए उन्होंने शिक्षा के महत्व पर बल दिया। उनका कथन था कि – शिक्षा के अभाव से ज्ञान की कमी होती है। ज्ञान की कमी से नैतिकता की कमी होती है। इससे उन्नति नहीं हो पाती। उन्नति के अभाव में धन की कमी होती है। धन की कमी के कारण निम्न जातियों का शोषण होता है। इससे साफ दिखाई देता है कि शिक्षा के अभाव में समाज की क्या दशा होती है।
वह सबसे पहले महिलाओं को शिक्षित करना चाहते थे। अपने मिशन की शुरूआत उन्होंने घर से ही की और अपनी पत्नी को पढ़ाया।ं दोनों ने मिल कर अगस्त 1848 में भारत में पहला लड़कियों का विद्यालय स्थापित किया। इसके लिए उन्हें अपना घर छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। उन्होंने भारत में सर्वप्रथम नारी शिक्षा का कार्य प्रारम्भ किया। उन्हें अपने स्कूल में महिलाओं, शुदों और अति शुदों को प्रवेश देने के कारण बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। उस समय शिक्षा, कृषि, जाति प्रथा,नारी उत्थान और छुआछूत उन्मूलन के क्षेत्र में उनके द्वारा किए जाने वाले कामों के कारण समाज बदलता हुआ दिखाई देने लगा। उन्होंने जीवन पर्यन्त नारी शिक्षा और अछूतों की स्थिति को सुधारने का प्रयास किया। किसी भारतीय द्वारा लडकियों का पहला स्कूल खोले जाने कारण उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा सम्मानित किया गया।
संत कबीर दास के विचारों से प्रभावित हो कर जोतिबा फुले ने 24 सितम्बर 1873 को अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्हें इस संस्था का अध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष बनाया गया। इस संस्था का मुख्य ध्येय शुदों एवं अति पिछड़े वर्ग के लोगों को सर्वण जातियों और शासक वर्ग के मराठों के शोषण और अत्याचारों से बचाना था। सत्यशोधक समाज के मंच से उन्होंने वेदों की पवित्रता और सत्यता पर अनेक प्रश्न उठाए। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जोतिबा भविष्यदृष्टा थे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जिन कमियों की ओर संकेत किया वे आज भी हमारे समाज में दिखाई देती हैं। सत्यशोधक समाज में उन्होंने महिलाओं की दुर्दशा पर विशेष ध्यान दिया। सावित्री बाई ने लड़कियों का स्कूल चलाने के लिए एक अध्यापिका के रूप में अथक प्रयास किए। वर्ष 1890 में जोतिबा के देहान्त के बाद उनके अनुयायियों ने शिक्षा के इस आन्दोलन को महाराष्ट्र के गांव गांव तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया।
जोतिबा चाहते थे कि समाज में सब स्वतंत्र और समान रूप से भाई चारे के साथ रहें। मानवीय प्रतिष्ठा और आर्थिक न्याय देने वाले शोषण रहित समाज का निर्माण हो। वह जानते थे कि जीवन की नई समाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए पुराने चरमराये और शोषण से भरपूर मूल्यों वाली प्रणलियों को ध्वंस करना पड़ेगा। इसी कारण जोतिबा ने पुराने विश्वासों पर करारे प्रहार किए। उन्होंने अंधविश्वास के विरोध में खुल कर प्रचार किया। उस युग में फूले ही एक मात्र ऐसे समाजशास्त्री और मानव अधिकारों के रक्षक थे जो इतने स्पष्ट शब्दों में अपनी ऐसी बातें कहने का साहस दिखा सकते थे। उनका कहना था कि प्रत्येक धार्मिक पुस्तक अपने समय के अनुसार लिखी जाती है। उसमें लिखे गए सत्य कोई शाषवत और सर्वव्यापी नहीं होते। यह सत्य भी उन ग्रंथों के लिखने वाले लेखकों के हितों से परे नहीं हो सकते।
जोतिबा उस सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फैंकने में विश्वास करते थे जिसमें जानबूझ कर व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर बनाने का प्रयास किया जाता है। उनका शोषण करने के लिए उन्हें अनपढ़,अज्ञानी और निर्धन रखा जाता है। उनका मत था कि आर्थिक शोषण को समाज में से पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए।
जोतिबा फूले को सरकार द्वारा 1876 में पूना म्यूनसिपैलटी का सदस्य मनोनीत किया गया। वर्ष 1882 तक वह इसके सदस्य रहे। वर्ष1882 में उन्होंने शिक्षा आयोग के चैयरमैन सर विलियम हंटर के सामने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस आवेदन में उन्होंने कहा कि प्राइमरी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। बलिकाओं को शिक्षा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लोगों को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा दी जानी चाहिए। अनाथ एवं मूल सुविधाओं से वंचित बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। वंचितों के हितों की रक्षा के लिए उन्होंने कर्ज देने वाले महाजनों के विरोध में हड़ताल आयोजित करवाई। उन्होंने इस बात के लिए आन्दोलन किया कि किसानों की भूमि साहूकारों को हस्तांरित न की जाए। उनके प्रोत्साहन देने पर लोगों ने अन्याय करने वाले महाजनों के विरोध में प्रदर्शन किए। वह स्वयं एक अच्छे किसान थे और अच्छे ढंग से फलों की उपज करते थे। वह अपनी सारी आय समाज कल्याण के लिए व्यय कर देते थे।
महात्मा फूले चाहते थे कि शिक्षा का पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो जो छात्रों के भावी जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो। पाठ्यक्रम में कृषि को भी सम्मिलित किया जाए। उन्होंने पाया कि सामाजिक हालातों,सामाजिक दुर्दशा और निर्धनता के कारण छात्र अपनी शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं। इसके लिए वह चाहते थे कि स्कूलों में प्रशिक्षित अध्यापकों को ही भर्ती किया जाए। दलित एवं शुद जातियों के छात्रों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों का चुनाव भी इन्हीं जातियों से किया जाए ताकि वे उनकी सामाजिक समस्यायों को ध्यान में रखते हुए उन्हें पढ़ाएं। अध्यापकों को कृषि ज्ञान के अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं सफाई की भी पूरी जानकारी होनी चाहिए। समाज में होने वाले हर अन्याय का उन्होंने खुल कर विरोध किया। तन, मन और धन से हर बुराई को दूर करने का प्रयास किया। युगदृष्टा क्रान्तिकारी महापुरूष जोतीबा गोविंदराव फुले का 28 नवम्बर 1890 को निधन हो गया। अपने देहान्त से पूर्व उन्होंने समाज में जो जागृति पैदा की वह अविस्मरणीय है।