मोक्ष पाने के लिए करें इन चीजों का त्याग, तभी मिलता है आध्यात्मिक जीवन

कुछ लोग इतने व्यवहार कुशल और शांत चित्त होते हैं कि हर कोई उनसे मिलने के बाद पॉजिटिव एनर्जी से भरा महसूस करता है। लोगों का यह विलक्षण स्वभाव उनके अंतर्मन में मौजूद आध्यात्मिकता को उजागर करता है। यह आम धारणा है कि अध्यात्म का मतलब सब कुछ छोड़-छाड़कर जंगल में तप करने चले जाना ही है। ऐसा नहीं है। अध्यात्म तो अपने अंतर्मन को सुव्यवस्थित और अपने अंत:करण को नेगेटिविटी से मुक्त करने का विज्ञान है।
गैर-आध्यात्मिक व्यक्ति को यदि नेगेटिव वातावरण मिल जाए तो उसके अंतर्मन में नेगेटिव वाइब्रेशन शुरू हो जाता है। दूसरी तरफ आध्यात्मिक व्यक्ति नेगेटिव माहौल को भी अपनी सकारात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत करके उसके प्रतिकूल प्रभाव को क्षीण कर देता है। मनुष्य के जीवन की गुणवत्ता उसकी बाहरी शान-शौकत पर निर्भर नहीं करती, बल्कि इस पर निर्भर करती है कि उसके भीतर कितना सौंदर्यबोध, कितना प्रेम समाया हुआ है। यानी उसके भीतरी तत्व- करुणा, शांति, समरसता और क्षमाशीलता ही उसके जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करते हैं। महर्षि अष्टावक्र कहते हैं कि बाहरी पदार्थों के प्रति निर्भरता व सांसारिक वासना ही मनुष्य के बंधनों का प्रमुख कारण है।
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मुक्ति के लिए जंगलों जाने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर हमारे भीतर आध्यात्मिक क्रांति नहीं घटी है, तो जंगल और पहाड़ों की कंदराओं में भी सांसारिक वासनाएं पीछा नहीं छोड़ेंगी। आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए समाज, परिवार, कारोबार, पत्नी, और बच्चों का परित्याग नहीं करना पड़ता, बल्कि आध्यात्मिकता हासिल करने के लिए ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध और तमाम तरह की अनावश्यक भावनाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है। अष्टावक्र गीता में ऋषि अष्टावक्र राजा जनक की जिज्ञासा को शांत करते हुए कहते हैं- हे राजन, मनुष्य देह में रहते हुए भी आध्यात्मिक उन्नति व सांसारिक विकर्मों से मुक्ति संभव है। यदि आप आत्मबोध चाहते हैं तो अपने मन से विषयों के उपभोग को विष की तरह त्याग दीजिए और क्षमा, शील, दया और संतोष को अमृत की भांति सेवन कीजिए।

मन ही मनुष्य के बंधन एवं मुक्ति का कारण है। साधारण मनुष्य मन की वजह से देहाभिमान के तल पर जीवन गुजार देता है। वह अपने चैतन्य स्वरूप से अलग होकर शरीर को ‘मैं’ मान लेता है, जबकि शरीर तो पंचभूतों से कुछ कालावधि के लिए किराए पर लिया गया एक मकान मात्र है। शरीर तो वह इमारत है, वह धर्मशाला है, वह होटल है, जहां हम कुछ पल के लिए विश्राम करने आए हैं। न तो तन हमारा है और न ही मन हमारा है। मन के खेल में उलझकर ही मनुष्य अपने इस बेशकीमती जन्म को गंवा बैठता है।बारीकी से देखने पर एहसास होता है कि मनुष्य का मन तो वह डस्टबिन है, जिसमें सोसायटी रोज अपना कूड़ा डालती है। हरेक बाहरी व्यक्ति आपके मन में कुछ न कुछ अनर्गल व निरर्थक बातें डालकर चला जाता है और इन बातों को अहमियत देकर आप उन बातों की वजह से दिन-रात मान-अपमान के भंवर में फंसे चक्कर काटते रहते हैं। इस भंवर से खुद को मुक्त करना भी अपने हाथ में ही है। यदि आप मन और शरीर से अलग होकर अपने आत्मस्वरूप में विश्राम करें तो तत्काल उल्लास और आनंद की अनुभूति होने लगती है।
 

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