शिक्षा जगत के बेमिसाल दानवीर डॉ. हरीसिंह गौर 

26 नवम्बर : जन्म दिवस पर विशेष
आधुनिक भारत में शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. हरीसिंह गौर जैसा दानी कोई दूसरा नहीं हैं। डॉ. गौर ने जो किया उसकी दूसरी मिसाल आज तक देखने-सुनने-पढ़ने में नहीं आती। 26 नवम्बर 1870 को सागर शहर की शनीचरी टौरी वार्ड में डॉ. गौर का जन्म हुआ। इनके दादा का नाम मानसींग था। इनके दादा गढ़पहरा सागर से शनीचरी में आकर बसे वे पेशे से कारपेंटर (बढ़ई) थे उनके एक पुत्र तख्त सिंह थे वे अपने पैतृक पेशे में जाने के इच्छुक नहीं थे। वे थोड़े शिक्षित थे और पुलिस विभाग में भर्ती हो गए। तख्त सिंह के चार पुत्र थे। ओंकार सिंह, गनपत सिंह, आधार सिंह और डॉ. हरीसिंह, पुत्रों के अलावा इनकी दो पुत्रियाँ भी थीं। जिनके नाम लीलावती और मोहनबाई था। 
ओंकार सिंह और गनपत सिंह का काफी कम आयु में निधन हो गया। आधार सिंह और हरीसिंह ने अपने परिवार को सम्हाला। बचपन के दिनों में वे दो वर्षों तक एक निजी पाठशाला में पढ़े। इसके बाद सागर में ही उन्होंने हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के प्रारंभिक दौर से ही उनकी विलक्षणता दिखाई देने लगी। सरकार से उन्हें छात्रवृत्ता मिलने लगी।
वे अपनी माँ को छात्रवृत्ता में से पैसे देते थे। छात्रवृत्ता की राशि ने उनकी पढ़ने की रूचि को और बलबति बनाया। डॉ. गौर आगे के अध्ययन के लिए जबलपुर गए। जबलपुर के उपरांत वे अपने भाई के पास नागपुर गए उनके भाई नागपुर न्यायालय में कार्यरत थे। इन्हेंने नागपुर में आगे की पढ़ाई जारी रखी। यहाँ से डॉ. गौर ने पूरे क्षेत्र में सबसे अधिक अंक लेकर मेरिट में स्थान प्राप्त किया। गणित और दर्शन डॉ. गौर के प्रिय विषय थे। इन्हें शिक्षा में अच्छे प्रदर्शन के लिये पुरूस्कृत किया गया। इसके बाद इन्होंने (हिस्लाप महाविद्यालय, नागपुर) में प्रवेश लिया। 
छात्र जीवन में डॉ. गौर को अंग्रेजी और इतिहास में विशेष दक्षता के अंक मिले नागपुर की पढ़ाई के उपरांत इनके भाई ने डॉ. गौर को उच्च अध्ययन हेतु क्रेम्बिज भेजा इनके भाई एक निश्चित राशि डॉ. गौर को भेजा करते थे। इस राशि के अतिरिक्त डॉ. गौर उनके प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने लगे। इनमें वे विजेता रहते और पुरूस्कृत होते। पुरूस्कार को राशि से इंग्लैड के खर्चे वहन करने में इन्हें मदद मिलती। कालांतर में इन्हें एलएल.डी. की डिग्री मिली। डॉ. गौर ने इंग्लैड प्रवास में नस्लीय भेद को काफी नजदीक से देखा।
विधि के छात्र के साथ वे अच्छी कविताएं भी लिखते थे, उनकी लिखी कविताएँ ‘रायल सोसायटी आफ लिटरेचर’ द्वारा प्रकाशित की जाती थी। 1892 में वे विदेश से अध्ययन पूरा करके स्वदेश लौंटे। डॉ. गौर की शैक्षणिक विद्वता की धूम पूरे यूरोप में थी, इंग्लैंड के साथ-साथ उनकी विद्वता का लोहा समकालीन भारतीय समाज मानता था। 1921 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो डॉ. गौर को इस विश्वविद्यालय का पहला कुलपति नियुक्त किया गया। इसी तरह 1928 में जब नागपुर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो इसके पहले कुलपति भी डॉ. गौर नियुक्त हुए। डॉ. गौर को सागर शहर से काफी लगाव था। नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद के दायित्व के कुशल निर्वाहन के बाद सागर नगर में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए जी जान से जुट गए। 
1936 से वे इस दिशा में अधिक सक्रिय रहे। तत्कालीन म.प्र. सरकार ने जबलपुर में विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव उन्हें दिया जो इन्होंने ठुकरा दिया, वे सागर में ही विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते थे। आखिर उन्होंने सागर में निजी पूंजी से विश्वविद्यालय स्थापित किया। 1946 में लगभग 2 करोड़ रूपयों की बड़ी राशि से सागर नगर के पूर्व में पथरिया की पहाड़ियों पर एक बहुत खूबसूरत विश्वविद्यालय स्थापित किया। जो केवल सागर के लिए ही नहीं बल्कि भारत के शैक्षणिक संस्थानों में एक ऊँचा स्थान रखता है। भारत में अलीगढ़ एवं बनारस विश्वविद्यालय भी बने परन्तु वे लोगों के दान से बने। सागर विश्वविद्यालय डॉ. गौर की निजी सम्पत्ता से बना यह बेमिसाल हैं। डॉ. गौर का यह दान बुन्देलखण्ड और देश के लिए वरदान साबित हुआ। 

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