शिशु का घुटनों के बल चलने दें
शिशु सबसे पहले घुटनों के बल चलना सीखते हैं। जब शिशु घुटनों के बल चलते हैं तो एक प्रकार से उनके शरीर का व्यायाम होता है। उनके पैरों में ताकत आती है और खड़े होकर चलने की क्षमता विकसित होती है। इसलिए वॉकर आदि ला कर बच्चे को सीधे उसके सहारे चलाने का प्रयास न करें बल्कि उसे प्राकृतिक रुप से घुटनों के बल चलने दें।
पैरों पर चलने से पहले बच्चों का घुटनों के बल चलना, प्राकृतिक का एक नियम है।
पैरों के बल चलने से पहले, घुटनों के बल चलने से शिशु को अनेक प्रकार के स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं। शिशु का घुटनों के बल चलना उसके शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए बहुत जरूरी है।
शिशु के शारीरिक विकास के लिए
जब बच्चे घुटनों के बल चलते हैं तो पैरों के साथ-साथ उनके हाथों का भी इस्तेमाल होता है। इस तरह शिशु के हाथ और पैर दोनों की हड्डियों और मांसपेशियों को मजबूती मिलती है साथ ही उनका शरीर लचीला बनता है। जब बच्चे अपने घुटनों के बल चलते हैं तो उनका पैर शरीर को मोड़ना, घुमाना साथ ही चलने और दौड़ने जैसी जरूरी प्रक्रिया को समझता है और सीखता है।
शिशु जब घुटनों के बल चलना शुरू करता है तो उसके शरीर को प्रोटीन और कैल्शियम युक्त आहार की आवश्यकता पड़ती है।
अगर इस समय आप शिशु के आहार में ऐसे भोजन को सम्मिलित करें जिसे प्रचुर मात्रा में चींटियों को प्रोटीन और कैल्शियम मिले तो उसकी हड्डियां मजबूत बनेगी और उसकी मांसपेशियों का विकास बहुत तेजी से होगा।
शिशु के अच्छे मानसिक विकास के लिए यह जरूरी है कि वह खुद चीजों को करके सीखें। इसी के अंतर्गत प्राकृतिक ने शिशु के लिए घुटनों के बल चलने का नियम निर्धारित किया है।
जब शिशु पैरों के बल चलता है तो उसमें गति और स्थिति के नियमों को समझने की क्षमता बढ़ती है। इसके समाज से शिशु अपना संतुलन बनाना सीखना है।
शिशु किस प्रक्रिया से अपनी आंखों और हाथों की गति में सामंजस्य स्थापित करना भी सीखता है। घुटनों के बल चलने के दौरान क्योंकि अपने आसपास की चीजों से संबंधित समझ बढ़ती है।
दृष्टि और सामंजस्य
घुटनों के बल चलते वक्त जब शिशु एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है तो उसमें आंखों और दृष्टि के नियमों की समझ बढ़ती है। इसके साथ ही उसकी दृष्टि की क्षमता का विकास होता है।
इससे पहले नवजात अवस्था में जब शिशु केवल गोद में रहता था तो वह केवल अपने आसपास की वस्तुओं को दूर से देख सकता था लेकिन घुटनों के बल चलने के दौरान उसमें पास और दूरी की समझ का विकास पड़ता है। या यूं कहें कि उसमें दूरी से संबंधित समझ का विकास होता है।
इस समझ के आधार पर वह यह निर्णय करना सीखता है कि उसे किस गति से कहां पर पहुंचना है कि शरीर को नुकसान ना पहुंचे तथा दूरी के आधार पर एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचने पर कितना समय लगेगा।
यह शिशु की जिंदगी का वह महत्वपूर्ण पड़ाव है जब शिशु का दाया और बाया मस्तिष्क आपस में सामंजस्य स्थापित करना सीखता है।
ऐसा इसलिए क्योंकि इस समय शिशु एक साथ कई काम कर रहा होता है जिससे उसके दिमाग के अलग-अलग हिस्सों का इस्तेमाल हो रहा होता है।
उदाहरण के लिए जब शिशु घुटनों के बल चलता है तो वह अपने हाथ और पैर दोनों का इस्तेमाल करता है तथा तापमान, दूरी, गहराई जैसे ना जाने अनेक चीजों को भी अपने तजुर्बे से इस्तेमाल करना सीखता है। इस समय शिशु के दिमाग का विकास अपने चरम पर होता है।
घुटनों के बल चलने से शिशु के आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होती है क्योंकि वह अपनी जिंदगी के बहुत से दैनिक फैसले खुद लेना शुरू करता है।
उदाहरण के लिए दूरी या गहराई के आधार पर वह यह निर्णय लेना शुरू करता है कि उसे किस दिशा में घुटनों के बल आगे बढ़ना है या उसे कब रुकना है।
इस तरह से उसे हर शारीरिक गतिविधि के लिए कुछ ना कुछ निर्णय लेना पड़ता है। इस तरह समय से निर्णय लेने से उसमें आत्मविश्वास के साथ साथ सोचने और विचार करने की क्षमता का भी विकास होता है।
घुटनों के बल चलने के दौरान कई बार बच्चों को चोट भी लगती हो।
जिंदगी के इस प्रकार के छोटे-छोटे खतरे उसे आगे चलकर उसमे बड़ा जोखिम लेने का साहस पैदा करते हैं और साथ ही असफल होने की स्थिति में उसके अंदर पुनः प्रयास करने की समझ और साहस विकसित करते हैं। इस प्रकार का समय और आत्मविश्वास दोनों आगे चलकर किसी को पैरों के बल चलने में मदद करते हैं।