चारा घोटाला: एक-दो करोड़ से बात शुरू हुई और 950 करोड़ का घपला खुल गया
पटना । 2जी और कोलगेट की बात अलग है, बिहार में जिन दिनों चारा घोटाला खुला था, अपने आप में यह बहुत बड़ा घोटाला था। खास बात यह है कि इसके आरोपित भी बड़े-बड़े हैं। मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद बड़े-बड़े अधिकारी और ठेकेदार सब शामिल पाए गए। इस घोटाले में सजा पाने के बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और जदयू के तत्कालीन सांसद जगदीश शर्मा लोकसभा से निष्कासित होने वाले पहले और दूसरे सांसद बन गए। चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार लालू प्रसाद पर चुनाव लडऩे पर रोक लग गई।
2013 में लालू को मिली सजा
इस घोटाले को पशुपालन विभाग के तत्कालीन अधिकारियों, पशुओं के लिए चारा और दवाओं की सप्लाई करने वाले सप्लायरों और ठेकेदारों तथा राजनेताओं की तिकड़ी ने अंजाम दिया था। सरकारी खजाने की इस चोरी में पांच सौ से अधिक अधिकारियों, सप्लायरों, ठेकेदारों व राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। सीबीआइ की अदालत ने वर्ष 2013 के अक्टूबर में कोषागार से 37 करोड़ रुपये की अवैध निकासी मामले में लालू प्रसाद और जगन्नाथ मिश्रा को दोषी पाते हुए सजा सुना दी। हालांकि शनिवार 23 दिसंबर 2017 को देवघर कोषागार मामले में जगन्नाथ मिश्र बरी हो गए हैं।
पूरी दुनिया में शोर उठा था, कौन खा गया चारा
90 के दशक में इस घोटाले की गूंज न केवल बिहार में बल्कि दुनिया के कोने-कोने में सुनी गई। सरकारी खजाने में सेंध लगाने का यह काम अचानक से नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से एक सुनियोजित तरीके से चल रहा था। इसकी शुरुआत छोटे मामलों से हुई थी, लेकिन जब इसकी सीबीआइ जांच शुरू हुई तब इसके चपेटे में न केवल तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद आए बल्कि उनके साथ-साथ पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र, तत्कालीन पशुपालन मंत्री भोला राम तूफानी समेत कई राजनेता, नौकरशाह, पशुओं के लिए चारा, दवा व अन्य सामानों की सप्लाइ करने वाले बड़े व्यवसायी और भी इसकी चपेट में आ गए। सीबीआइ की मानें तो यह घोटाला केवल आर्थिक भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि एक व्यापक षड्यंत्र का भी है, जिसमें राज्य सरकार के कर्मचारी, नेता और व्यापारी वर्ग समान रूप से भागीदार रहे हैं। दरअसल, इस घोटाले की सुगबुगाहट सबसे पहले बिहार पुलिस ने महसूस की थी। यह मामला वर्ष 1994 का है। तब एकीकृत बिहार के रांची, गुमला, पटना, डोरंडा और लोहरदगा के कोषागारों से फर्जी बिल के जरिए करोड़ों रुपये की कथित अवैध निकासी के मामले दर्ज किए गए थे। रातों-रात सरकारी कोषागारों और पशुपालन विभाग के सैकड़ों अधिकारी और कर्मचारी गिरफ्तार कर लिए गए। कई सप्लायरों और ठेकेदारों को हिरासत में ले लिया गया। राज्यभर में इसे लेकर दर्जनभर आपराधिक मुकदमें दर्ज किए गए, लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। राज्य की विपक्षी पार्टियों ने घोटाले के आकार और इसमें राजनीतिक मिलीभगत को लेकर इसकी सीबीआइ जांच की मांग उठाई। इसके लिए पटना हाइकोर्ट में याचिकाएं दायर की गईं। पटना हाइकोर्ट ने इस घोटाले को गंभीरता से लेते हुए इसकी सीबीआइ जांच के आदेश जारी कर दिए। जांच की कमान सीबीआइ के तत्कालीन संयुक्त निदेशक यूएन विश्वास को सौंपी गई। सीबीआइ जांच शुरू होते ही जांच का पूरा रुख ही बदल गया।
सरकार को सब पता था, सीबीआइ जांच खुली सब बात
सीबीआइ ने जांच के शुरुआती दिनों में ही कहा था कि इस घोटाले के सभी अभियुक्तों के संबंध लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल और अन्य पार्टियों के शीर्ष नेताओं से रहे हैं। तब सीबीआइ ने यह भी दावा किया था कि उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि इस घोटाले की काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा नेताओं के पास पहुंचता रहा है। पशुपालन विभाग के अधिकारियों ने पशुओं के चारे और दवाओं आदि की सप्लाई के लिए करोड़ों के फर्जी बिल के आधार पर कोषागारों से नियमित रूप से निकासी की है। जांच से जुड़े सीबीआइ के अधिकारियों ने यह भी दावा किया कि बिहार के मुख्य लेखा परीक्षक ने इसकी जानकारी राज्य सरकार को समय-समय पर उपलब्ध कराई है लेकिन सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया। सीबीआइ की जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई इस बहुचर्चित घोटाले की कडिय़ां भी जुड़ती गईं।