सन्यासी बनें या गृहस्थ जीवन में जाए, ऐसे करें फैसला
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
एक जिज्ञासु इंसान कबीर के पास पहुंचा। उसने कबीर से पूछा कि मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि संन्यासी बनूं या फिर गृहस्थ जीवन में जाऊं। अब आप ही बताएं। कबीर ने कहा कि जो भी बनो आदर्श बनो। इसके लिए उन्होंने उदाहरण के लिए उन्होंने दो घटनाएं दिखाईं। कबीर ने अपनी पत्नी को बुलाया। भरी दोपहरी थी चारों ओर प्रकाश था लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी से दीपक जलाकर लाने को कहा ताकि वे कपड़ा अच्छी तरह बुन सकें। पत्नी दीपक लाई और बिना कुछ बहस किए चली गईं।
कबीर ने कहा, देखो भाई…गृहस्थ बनना चाहते हो तो परस्पर ऐसे विश्वासी बनना कि दूसरे की इच्छा ही अपनी इच्छा बने। ऐसे गृहस्थ बनो कि तुम्हारे कहने पर घर वाले रात को दिन और दिन को रात मानने को तैयार हों, अन्यथा रोज के झगड़ों का कोई फायदा नहीं। इसके बाद कबीर दूसरा उदाहरण जिज्ञासु को देना चाहते थे, इसके लिए वह उसे एक टीले पर लेकर गए।
टीले पर एक वृद्ध महात्मा रहते थे। वे कबीर को जानते नहीं थे। कबीर ने महात्मा को नमन किया और उनसे पूछा, आपकी आयु कितनी है? महात्मा ने जवाब दिया, 80 बरस। इसके बाद कबीर दूसरी बातें करने लग गए और फिर बाबाजी से पूछा आप अपनी आयु क्यों नहीं बता रहे हैं। महात्मा ने कहा बेटा अभी तो मैंने सभी को बताया कि मैं 80 बरस का हूं, लगता है तुम भूल गए हो।
कबीर टीले की आधी चढ़ाई उतर गए और महात्मा को जोर से फिर पुकारा तथा उनको नीचे आने के लिए कहा। वह हांफते-हांफते कबीर के पास नीचे चले आए और बुलाने का कारण पूछा तो कहा- ‘एक जरूरी सवाल पूछना भूल गया था। आपकी उम्र कितनी है?’ महात्मा को कबीर की बातों पर तनिक भी क्रोध नहीं आया और कहा- अस्सी बरस है और फिर हंसते हुए वापस लौट गए। कबीर ने कहा, देखा अगर संन्यासी बनना हो तो ऐसा बनना, जिसे क्रोध ही न आए।