खुद ही इस तरह पाना होगा ज्ञान, गुरु के पीछे भागते रहने से नहीं मिलेगा
सीताराम गुप्ता
गुरु का वास्तविक स्वरूप क्या है? क्या एक सशरीर व्यक्ति ही गुरु होने की पात्रता रखता है? विवेकानंद कहते हैं कि सच्चा गुरु अनुभव है। मनुष्य सच्चा ज्ञान अपने अनुभव से प्राप्त कर सकता है। किसी व्यंजन का स्वाद कैसा है, यह हमारी अपनी अनुभूति पर आधारित होता है। शरीर आग से छू जाने पर जल जाता है। इसका ज्ञान हमें स्वयं आग से छू जाने पर ज्यादा स्पष्ट होता है, लेकिन क्या हम सीखने की हर क्रिया के लिए प्रयोग ही करते रहेंगे? यदि हम केवल अपने अनुभवों से सीखते तो आज मानव जाति अत्यंत अल्पज्ञानी होती।
मनुष्य ने लाखों सालों में जो सीखा है, उसका अधिकांश भाग हम अपने एक ही जीवन में सरलता से सीख लेते हैं। क्योंकि हममें दूसरों के अनुभवों से सीखने की इच्छा होती है और उनके अनुभवों पर विश्वास होता है तभी हम दूसरों के अनुभवों को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं। यही विश्वास गुरु का काम करता है। जब हममें स्वयं अपने अनुभवों से सीखने की क्षमता कम हो जाती है, फिर भी हम और सीखना चाहते हैं तभी दूसरों के अनुभवों की ओर देखते हैं, उनके अनुभवों के निष्कर्ष को आत्मसात करने के लिए उद्यत होते हैं। यहीं से गुरु नामक तत्व की तलाश प्रारंभ होती है।
इतना सब जानने-समझने के बाद भी गुरु शब्द में एक विशिष्ट सा सम्मोहन, एक विशिष्ट सा आकर्षण है। हम प्रायः ऐसे गुरु की खोज व कृपा प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं कि जिसका आशीर्वाद मिल गया तो हम संसार के समस्त कष्टों से मुक्त हो जाएंगे, सुखी हो जाएंगे। गुरु एक बार सच्चे मन से सिर पर हाथ रख दे तो दुनिया की सारी खुशियां हमारे कदमों में होंगी। दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं जो गुरु पैदा न कर सके या उपलब्ध न करा सके।
कोई दूसरा रोटी खा ले तो हमारा अपना पेट नहीं भरता। घर में जिम स्थापित कर लेने मात्र से ही हम स्वस्थ नहीं हो सकते। इसी प्रकार जब तक हम खुद कुछ न करके गुरु के पीछे भागते रहेंगे तो कुछ हासिल नहीं होगा। यदि पेपर में कुछ न लिखने पर भी अध्यापक की कृपा से कोई पास हो जाता है अथवा गुरु की कृपा से संसार की सारी समृद्धि मिल जाती है तो इससे बड़ी कोई दूसरी विडंबना नहीं हो सकती।
सूचनाओं अथवा शास्त्रों की जानकारी देना ज्ञान नहीं और न ही मात्र इस कार्य को संपन्न कराने वाला गुरु ही है। कितना विरोधाभास है हमारी कल्पना में! वस्तुतः हमारी आत्मज्ञान की लिप्सा अथवा जिज्ञासा ही सबसे बड़ा गुरु है। सात्विक जिज्ञासा होगी तो उसे शांत करने वाला तत्व भी अवश्य उत्पन्न हो जाएगा और उसे ही गुरु कहा जा सकता है। इस दृष्टि से सृष्टि का हर प्राणी ही नहीं, हर जड़ व चेतन पदार्थ गुरु होने की क्षमता रखता है।