दमोह में जेल से हुई थी दुर्गा उत्सव की शुरुआत, 1 शताब्दी में भी नहीं बदला चार देवियों का स्वरुप

दमोह: दमोह का दुर्गा उत्सव जिले ही नहीं बल्कि प्रदेश भर में अपनी कुछ खासियतों को लेकर प्रसिद्ध है. कुछ ऐसी दुर्गा प्रतिमाएं हैं, जो प्रदेश भर में प्रसिद्ध हैं. यूं तो दमोह शहर में 100 से अधिक दुर्गा प्रतिमाएं भिन्न-भिन्न पंडालों में स्थापित की जाती हैं. लेकिन कुछ ऐसी प्रतिमाएं हैं जो दमोह जिले में ही नहीं बल्कि प्रदेश भर में प्रसिद्ध हैं. दमोह नगर में ऐसी ही चार दुर्गा प्रतिमाएं हैं जो दशकों से लोगों की आस्था, समर्पण और विश्वास का केंद्र हैं. दमोह जिले में माता दुर्गा की प्रतिमा रखे जाने और उनके स्वरूप में बदलाव न किए जाने को लेकर भी कुछ कहानियां प्रचलित हैं.

1927 में दमोह जेल में हुई माता की स्थापना
वयोवृद्ध सेवा निवृत्त शिक्षक एवं जगदीश व्यायाम शाला के उस्ताद मनोहर लाल चौरासिया बताते हैं कि, ''दमोह जिले में दुर्गा उत्सव की शुरुआत 1927 में हुई थी. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कुछ बंगाली बंधु जो दमोह जेल में बंद थे. उन्होंने तत्कालीन जेलर से आग्रह किया कि वह नवरात्रि में दुर्गा जी का पूजन करना चाहते हैं. इसलिए उन्हें दुर्गा प्रतिमा रखने की अनुमति दी जाए. इस पर जेलर ने कलेक्टर को पत्र लिखा और कलेक्टर ने जेल के अंदर ही दुर्गा प्रतिमा स्थापना को मंजूरी दे दी. उसके बाद जेल में उस प्रतिमा को रखा गया.

9 दिन तक विधि विधान से पूजन हुआ. दसवें दिन प्रतिमा को जलविहार के लिए बाहर निकाला गया. लेकिन कैदी जेल से बाहर नहीं आ सकते थे, इसलिए दमोह की जनता को वह प्रतिमा सौंप दी गई. यह पहला अवसर था जब किसी दुर्गा प्रतिमा का जलविहार किया जाना हो और मां के दर्शन लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी हो. उसके बाद दूसरे ही साल 1928 में दमोह जिले में सबसे पहले सार्वजनिक दुर्गा प्रतिमा मोरगंज गल्ला मंडी में स्थापित की गई. जिसे लोग महिषासुर मर्दिनी के नाम से जानते हैं.

अब तक नहीं बदला देवियों का स्वरूप
तब से लेकर अब तक इस प्रतिमा के रंग रूप में किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं आया है. जो प्रतिमा पहली बार स्थापित की गई थी वहीं प्रतिमा आज भी स्थापित की जा रही है. यहां पर साज सज्जा से अधिक पूजा विधान को महत्व दिया जाता है. जब गल्ला मंडी में प्रतिमा स्थापित की गई तो फुटेरा मोहल्ला के कई लोग यहां पर काम करने आते थे. लेकिन पहले ही वर्ष कुछ मतभेद हो गए, जिसके बाद वहां के लोगों ने तय किया कि मोरगंज में मां काली भी रखी हैं तो हम महाकाली रखेंगे. इसके बाद 1929 में फुटेरा मोहल्ला में महाकाली की स्थापना की गई.

ठीक इसी तरह 1929 में ही पुराने थाने पर बंजारी माता की स्थापना करना बताया जाता है. हालांकि उनकी स्थापना को लेकर कुछ मतभेद हैं. कुछ अन्य जानकारों का कहना है कि, यह दमोह की तीसरी सबसे प्राचीन प्रतिमा है. जिनकी स्थापना 1935 में की गई थी. ठीक इसी तरह लोको क्षेत्र स्थित रेलवे बजरंग अखाड़ा की प्रतिमा की स्थापना करीब 80 वर्ष पहले की गई थी. लेकिन दस्तावेजों में 1949 को प्रथम बार वहां पर माता महालक्ष्मी के स्वरूप को स्थापित करना बताया गया है.

 

महालक्ष्मी के रूप में विराजमान माता रानी
यहां के पुजारी पंडित राजकुमार पुरोहित ने बताया, ''आज तक माता का स्वरूप नहीं बदल गया है. एक बार कुछ लोगों ने स्वरूप बदलने की कोशिश की थी जिसके बाद एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया था. तब लोगों ने माता रानी से क्षमा मांग कर फिर से उनके पुराने स्वरूप को स्थापित किया. यह मां अपने गले में सोने का तिदाना (हार), पैरों में पायल और चांदी की नथनी पहने हुए हैं. इसके अलावा कई अन्य सोने और चांदी के आभूषण माता रानी को पहनाए जाते हैं. जिस रंग रूप में पहली बार माता को विराजमान किया जा गया था. वहीं, रंग रूप, कद काठी आज भी प्रचलन में है.

लोको एरिया में स्थापित माताजी एकमात्र दमोह जिले की ऐसी माताजी है जो महालक्ष्मी के रूप में विराजमान हैं. नगर की यह चारों ही देवियां ऐसी हैं, जिनके स्वरूप में आज तक कोई परिवर्तन नहीं किया गया. इन चारों ही स्थान पर साज सज्जा से अधिक पूजन विधान को महत्व दिया जाता है.

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