धरती पर आज भी जीवित हैं भगवान शिव का ये अंश, फिरता है पृथ्वी पर मारा-मारा
कर्मों का लेखा-जोखा भी विचित्र है। कभी-कभी देव कृपा से जब पाप पुण्य समांतर चलते हैं तो जीवन की दशा भी अलग दिशा में खींच ले जाती है। लेकिन जहां पाप कर्मों का बोझ मन पर होता है तो बंदे को शांति कहीं नहीं मिलती और वह मारा-मारा फिरता है लेकिन पाप उसे अशांत ही रखते हैं। पुण्य उसे सन्मार्ग की ओर खींच लेते तो पाप उसे कुमार्ग की ओर ले जाते हैं। इसे कुछ इस तरह भी देखा जा सकता है कि जैसे देवों और असुरों के समुद्र मंथन का संघर्ष जिसमें चौदह रत्न प्रकट होते हैं। ऐसे ही हमारे मन में भी समुद्र मंथन की तरह उथल-पुथल चलती है।हमारे विचार जो प्रकृतिजन्य पिछले जन्मों के कृत्यों के प्रभावों से ओत-प्रोत होते हैं, हमें वर्तमान जन्म में सद्कर्मों या पाप कर्मों की तरफ अनायास ही खींच ले जाते हैं। इस संदर्भ में महाभारत युद्ध में गीता ज्ञान देते हुए भगवान श्री कृष्ण का कथन है कि अर्जुन तुम युद्ध नहीं करना चाहते फिर भी तुम अपने जन्म-जन्मांतर के प्रेरित गुण-धर्म-संस्कारों के बहाव से आखिर युद्ध करने के लिए बाध्य होगे।
इस संदर्भ में जीवन का अद्भुत सत्य छिपा है। सहस्त्रों हाथियों का बल है इस मन में, जो साधारण असाधारण आदमी को भी विचलित कर कहीं से कहीं लाकर कुछ भी करवा सकता है।
अब देखिए महाभारत के नायक अश्वत्थामा को। वह उन सात संजीवन देवों में शामिल हैं जिनकी प्रात:काल आयु वृद्धि के लिए मंत्र से पूजा की जाती है। वह अश्वत्थामा अजर अमर है परन्तु श्राप व अपने पाप के कारण अपने घावों से बेचैन पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता है।
अश्वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही सम्पन्न परिवार से थे। जन्म लेते ही अश्वत्थामा ने उच्चै:श्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया जो सभी दिशाओं और व्योम में गूंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्वत्थामा होगा।
महाभारत में अश्वत्थामा का भय : जब राक्षसों की सेना ने घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े हुए। तब अकेले अश्वत्थामा वहां अड़े रहे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला और घटोत्कच को भी घायल कर दिया।
अश्वत्थामा कौरव सेना के प्रधान महारथी थे। कुरुराज ने अपने पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना को ग्यारह महारथियों के सेनापतित्व में संगठित किया था। अश्वत्थामा ग्यारह सेनापतियों में एक प्रमुख स्थान रखता है।
इधर युद्ध में अर्जुन, कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रुपद, धृष्टद्युम्र तथा घटोत्कच आदि लड़ रहे थे। उनके रहते हुए भी उनके देखते ही देखते अश्वत्थामा ने द्रुपद, सुत सुरथ और शत्रुंजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों तथा बलानीक, शतानीक, जयाश्व, श्रुताह्य, हेममाली, पृषध्र तथा चंद्रसेन जैसे वीरों को रण में मार डाला और युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया था। अश्वत्थामा द्वारा किए जा रहे इस विध्वंस को देखते हुए पांडव पक्ष में भय और आतंक फैल गया था। अब अश्वत्थामा को रोकना बहुत जरूरी हो गया था। सभी इस पर विचार करने लगे थे अन्यथा अगले दिन हार निश्चित थी।
अश्वत्थामा हाथी मारा गया: भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्याहरवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं। दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जाएगा। जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपनी बाण वर्षा से उन्हें रोक देता है। नकुल, युधिष्ठिर के साथ थे और अर्जुन भी वापस युधिष्ठिर के पास आ गए। इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सके।
लेकिन द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी। पांडवों की हार को देखकर श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि ‘अश्वत्थामा मारा गया’ लेकिन युधिष्ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज नाम के राजा का हाथी जिसका नाम अश्वत्थामा था इस हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बात फैला दी गई कि ‘अश्वत्थामा मारा गया।’
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जाननी चाही तो उन्होंने जवाब दिया, ‘‘अश्वत्थामा मारा गया है परन्तु हाथी।’’
श्री कृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द ‘हाथी’ नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा कि मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जब द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्र ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह समाचार अश्वत्थामा के लिए भयंकर रूप से दुखद था। पिता की छलपूर्वक हत्या के बाद अश्वत्थामा ने युद्ध के सभी नियमों को ताक में रख दिया।
महाभारत के 18वें दिन ब्रह्मास्त्र का प्रयोग : अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। इसी दिन अश्वत्थामा ने पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली लेकिन उन्हें समझ में नहीं आता कि कैसे पांडवों को मारा जाए। अश्वत्थामा यही सोच रहे थे तभी एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने पर उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्वत्थामा के मन में भी यही विचार आया और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर उसने सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझ कर उनका सिर काट दिया। इस घटना से धृष्टद्युम्र जाग जाता है तो अश्वत्थामा उसका भी वध कर देता है।
अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती हैं। उनके विलाप को सुनकर अर्जुन ने अश्वत्थामा का सिर काट डालने की प्रतिज्ञा कर ली। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला तब श्री कृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ा। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन ने तो अपना अस्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा ने अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की ओर मोड़ दिया। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं।
अंत में श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुन: पाप करेगा अत: तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।’’
श्री कृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरु पुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरु पुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, ‘‘हे आर्यपुत्र यह गुरु पुत्र है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौटकर तो नहीं आ सकते अत: आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।’’
द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उनकी प्रशंसा की। इस पर श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार आततायी को दंड न देना पाप है अत: तुम वही करो जो उचित है।’’
उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्वत्थामा के पास शिवजी द्वारा दी गई कई शक्तियां थीं। वह स्वयं शिव का अंश थे। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक पर एक अमूल्य मणि विद्यमान थी जो उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था। द्रौपदी ने अश्वत्थामा को जीवनदान देते हुए अर्जुन ने उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दिया।
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित है और वह गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां है यह नहीं बताया गया है।