नहाय-खाय के साथ शुरू हुआ आस्था का महापर्व छठ, जानिए क्यों खास है सूर्योपासना की ये परंपरा

पटना। भारत के सबसे पवित्र और अनूठे त्योहारों में से एक छठ पूजा आज से नहाय-खाय के साथ शुरू हो चुका है. यह चार दिन का महापर्व बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. सूर्य देव और छठी मइया की पूजा का यह पर्व प्रकृति, परिवार और आत्म-शुद्धि से गहरा जुड़ाव रखता है. आइए, इस खास पर्व की कहानी, इसके अनुष्ठान और महत्व को आसान भाषा में विस्तार से जानते हैं.

नहाय-खाय: शुद्धि और शुरुआत का दिन

छठ पूजा का पहला दिन नहाय-खाय कहलाता है. इस दिन व्रती सुबह जल्दी उठकर नदी या तालाब में स्नान करते हैं और घर की साफ-सफाई भी करते हैं. नए या साफ कपड़े पहनकर व्रती और उनके परिवारजन सात्विक भोजन बनाते हैं. इस भोजन में चावल, चने की दाल और कद्दू की सब्जी शामिल होती है, जिसे बिना लहसुन-प्याज और कम मसालों के साथ तैयार किया जाता है. यह भोजन मिट्टी या तांबे के बर्तनों में पकाया जाता है ताकि पवित्रता बनी रहे. नहाय-खाय का मतलब है शरीर और मन को शुद्ध करके इस पवित्र व्रत की शुरुआत करना. यह दिन व्रती को अगले तीन दिनों के कठिन अनुष्ठानों के लिए तैयार करता है.

आस्था और इतिहास का संगम

छठ पूजा की जड़ें प्राचीन काल से जुड़ी हैं. कई लोग मानते हैं कि यह पर्व रामायण काल से शुरू हुआ, जब भगवान राम और माता सीता ने अयोध्या लौटने पर सूर्य देव की पूजा की थी. एक अन्य कहानी महाभारत से जुड़ी है, जिसमें द्रौपदी ने पांडवों के कष्ट दूर करने के लिए छठ व्रत रखा था. इसके अलावा, छठी मइया की कहानी भी खास है. मान्यता है कि छठी मइया बच्चों की रक्षा करती हैं और परिवार को सुख-समृद्धि देती हैं. एक लोककथा के अनुसार, एक नि:संतान दंपति ने छठी मइया की पूजा की और उन्हें संतान प्राप्त हुई. इसीलिए यह पर्व संतान की लंबी उम्र और स्वास्थ्य के लिए भी खास माना जाता है. छठ पूजा सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि पर्यावरण से भी जुड़ा है. नदियों और तालाबों में अर्घ्य देने की परंपरा प्रकृति के प्रति सम्मान दर्शाती है. यह दुनिया का इकलौता पर्व है जिसमें डूबते और उगते दोनों सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, जो जीवन के हर पहलू को स्वीकार करने का संदेश देता है.

संयम और प्रसाद का दिन खरना

दूसरे दिन, यानी 26 अक्टूबर को खरना मनाया जाता है. इस दिन व्रती पूरे दिन बिना पानी और भोजन के उपवास रखते हैं. सूर्यास्त के बाद छठी मइया की पूजा की जाती है और गुड़ की खीर, रोटी और फल प्रसाद के रूप में चढ़ाए जाते हैं. यह प्रसाद मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी से बनाया जाता है. पूजा के बाद व्रती और परिवारजन प्रसाद खाते हैं और इसके बाद 36 घंटे का कठिन निर्जला व्रत शुरू होता है. खरना का दिन संयम, धैर्य और भक्ति का प्रतीक है.

डूबते सूर्य का अर्घ्य

तीसरे दिन, 27 अक्टूबर को व्रती नदी या तालाब के किनारे जाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इस दौरान बांस की टोकरी में ठेकुआ, फल और अन्य प्रसाद सजाए जाते हैं. व्रती पानी में खड़े होकर सूर्य को दूध और जल अर्पित करते हैं. यह दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है, जब हजारों लोग एक साथ नदी किनारे सूर्य की आराधना करते हैं. यह दिन प्रकृति और सूर्य की शक्ति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का है.

उगते सूर्य का अर्घ्य

चौथे और अंतिम दिन, 28 अक्टूबर को उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सुबह तड़के व्रती फिर से जलाशय पर जाते हैं और सूर्योदय के समय पूजा करते हैं. इसके बाद व्रत खोला जाता है और प्रसाद बांटा जाता है. यह दिन आभार, नई शुरुआत और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है.

छठ का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

छठ पूजा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का भी प्रतीक है. इस दौरान पूरा समुदाय एकजुट होकर नदियों और घाटों को सजाता है. यह पर्व लिंग, जाति या आर्थिक स्थिति से परे सभी को जोड़ता है. महिलाएं इस व्रत को मुख्य रूप से करती हैं, लेकिन पुरुष भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. छठ के गीत, जैसे “केलवा के पात पर उगेलन सूरज मल “, इस पर्व को और जीवंत बनाते हैं. छठ पूजा आस्था, अनुशासन और प्रकृति से जुड़ाव का अनोखा पर्व है. नहाय-खाय से शुरू होकर उगते सूर्य के अर्घ्य तक, यह चार दिन का उत्सव जीवन के हर रंग को समेटे हुए है. यह पर्व हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति और मेहनत से हर मुश्किल को पार किया जा सकता है. आज छठ दुनिया के हर हिस्से में मनाया जाने लगा है.

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