सिर्फ राम की अयोध्या वापसी नहीं, जैन, सिख और बौद्ध इस वजह से मनाते हैं दिवाली
दिवाली या दीपावली उत्सव के बारे में प्रचलित कथा इस त्योहार को भगवान राम के अयोध्या में विजयी वापसी से जोड़ती है. लेकिन प्रकाश के इस त्योहार की उत्पत्ति के बारे में कई परंपराएं और मान्यताएं हैं. हर क्षेत्र में दिवाली मनाने की अपनी एक अलग और दिलचस्प कहानी है. इतिहासकारों के अनुसार दिवाली का सबसे पहला जिक्र वात्स्यायन के कामसूत्र में मिलता है. जिसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच हुई मानी जाती है. वात्स्यायन ने यक्ष रात्रि का उल्लेख किया है – यक्षों की रात्रि, जिसे घरों, दीवारों और अन्य स्थानों पर पंक्तियों में दीप जलाकर मनाया जाता था. हर्षोल्लास के साथ अलाव जलाए जाते थे. जुआ इस त्योहार का एक महत्वपूर्ण पहलू था.
इस त्योहार को अभी तक दिवाली का नाम नहीं दिया गया था. पौराणिक कथाओं के अनुसार यक्षों का संबंध धन की देवी लक्ष्मी से है. यह बात सही है कि वात्स्यायन ने प्राचीन काल में दिवाली का वर्णन सबसे अधिक प्रभावशाली तरीके से किया था. दिवाली आज केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में फैले हिंदू समुदाय का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण त्योहार है. हालांकि इसकी सबसे प्रसिद्ध कथा भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने और इसके उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले ‘प्रकाशोत्सव’ से जुड़ी है. यह पर्व वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता का एक संगम है.
कश्मीर ने दिया दिवाली नाम
कश्मीर में लक्ष्मी और दिवाली के बीच एक अलग ही कहानी जुड़ी है. नीलमत पुराण में पहली बार देवी लक्ष्मी का उल्लेख दिवाली के उत्सव के केंद्र में मिलता है. नीलमत पुराण की रचना 500 ईस्वी से 800 ईस्वी के बीच कश्मीर में हुई थी. दिवाली का नाम नीलमत पुराण से ही जुड़ा है. कश्मीरी ग्रंथों में दीपमाला नामक एक त्योहार का उल्लेख है, जिसे सुखसुप्तिका भी कहा जाता है. यह चंद्र कैलेंडर की उसी रात को मनाया जाता था जिस रात आजकल दिवाली मनाई जाती है. नीलमत पुराण के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या की रात्रि को भक्तों को अपने घर पर मिट्टी के दीपक जलाकर देवी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए. पूजा-अर्चना के बाद लोगों को अपने परिवार और मित्रों के साथ बैठकर भोजन करना चाहिए.
दिवाली का शाब्दिक अर्थ है ‘दीपों की पंक्ति’ (दीप+आवलि) और यह अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अज्ञान पर ज्ञान और निराशा पर आशा की विजय का प्रतीक है. यही कारण है कि हिंदू धर्म के अतिरिक्त, जैन धर्म, सिख धर्म और कुछ हद तक बौद्ध धर्म भी इस दिन को अपने-अपने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और आध्यात्मिक आयोजनों के कारण मनाते हैं.
हिंदू धर्म: राम की अयोध्या वापसी
हिंदू धर्म में दिवाली वस्तुतः एक दिन का नहीं बल्कि पांच दिनों का पर्व है, जिसमें धनतेरस से लेकर भाई दूज तक विभिन्न अनुष्ठान शामिल होते हैं. इसमें कई महत्वपूर्ण घटनाएं शामिल हैं, जो इसके बहुआयामी स्वरूप को दर्शाती हैं. राम की अयोध्या वापसी (विजय का उत्सव) सबसे व्यापक रूप से प्रचलित कथा है. त्रेता युग में भगवान राम द्वारा लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करने के बाद वह अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे. अयोध्यावासियों ने उनके आगमन पर घी के दीपक जलाए थे, जिससे अमावस्या की वह काली रात प्रकाश से जगमगा उठी थी. यह कथा बुराई पर धर्म की विजय का प्रतीक है.
देवी लक्ष्मी की पूजा
दिवाली की मुख्य रात को देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा की जाती है. माना जाता है कि इसी दिन लक्ष्मी समुद्र मंथन से प्रकट हुई थीं. लक्ष्मी धन, समृद्धि, भाग्य और सौंदर्य की देवी हैं, जबकि गणेश को विद्या, बुद्धि और शुभता का देवता माना जाता है. दिवाली की रात व्यापारी समुदाय नए बही-खातों की शुरुआत करता है और लक्ष्मी से समृद्धि का आशीर्वाद मांगता है.
नरकासुर पर कृष्ण की विजय
दिवाली से एक दिन पहले नरक चतुर्दशी (छोटी दिवाली) के दिन भगवान कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था, जिसने 16,000 महिलाओं को बंदी बना रखा था. यह कथा भी सत्य की जीत और अत्याचारी शासन के अंत का प्रतीक है.
जैन धर्म: महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस
जैन धर्म के लिए दिवाली का आध्यात्मिक महत्व हिंदू धर्म से भी अधिक है. जैन इसे मुख्य रूप से भगवान महावीर के मोक्ष (निर्वाण) दिवस के रूप में मनाते हैं. माना जाता है कि जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर को ईसा पूर्व 527 में बिहार के पावापुरी में कार्तिक माह की अमावस्या (दिवाली के दिन) को मोक्ष प्राप्त हुआ था. महावीर ने लगभग 72 वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त किया. यह मोक्ष उनके जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने और अनंत ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) प्राप्त करने का प्रतीक है.
दिये जलाने का कारण
कथाओं के अनुसार जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया तो 18 गणराज्यों के राजाओं और 9 मल्लकियों ने पावापुरी में इकट्ठा होकर यह घोषणा की, “चूंकि ज्ञान का प्रकाश बुझ गया है, हम भौतिक प्रकाश से इसकी भरपाई करेंगे.” जैनियों का मानना है कि महावीर की शिक्षाओं (ज्ञान का प्रकाश) को हमेशा जीवित रखने के लिए दीये जलाए जाते हैं. इसीलिए जैन धर्म में दिवाली को ‘निर्वाण दिवस’ या ‘योग-निरोध दिवस’ के रूप में जाना जाता है. इस दिन जैन मंदिरों में विशेष पूजा, उपवास और स्वाध्याय (धार्मिक ग्रंथों का पाठ) किया जाता है. जैन समुदाय के लिए दिवाली के बाद का दिन (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) अक्सर उनके नव वर्ष की शुरुआत होती है, जिसे वे वीरांगना संवत कहते हैं.
सिख धर्म: बंदी छोड़ दिवस
सिख धर्म में दिवाली को ‘बंदी छोड़ दिवस’ के नाम से जाना जाता है और इसका संबंध 17वीं शताब्दी के एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाक्रम से है. सिख दिवाली इसलिए मनाते हैं क्योंकि इस दिन छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी को मुगल सम्राट जहांगीर की कैद से रिहा किया गया था. गुरु हरगोबिंद सिंह जी को ग्वालियर के किले में कैद किया गया था. रिहा किए जाने पर गुरु जी ने यह शर्त रखी कि उनके साथ जेल में बंद 52 हिंदू राजाओं को भी रिहा किया जाए. जहांगीर ने एक चाल चली और कहा कि केवल वे ही राजा रिहा हो सकते हैं जो गुरु जी का दामन पकड़कर किले से बाहर निकलेंगे. गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने एक विशेष चोला बनवाया, जिसमें 52 छोर लगे हुए थे. हर राजा ने एक छोर को पकड़ लिया और इस प्रकार वे सभी राजा स्वतंत्रता प्राप्त कर किले से बाहर निकले.
स्वर्ण मंदिर में उत्सव
गुरु जी की अमृतसर वापसी पर लोगों ने पूरे शहर को दीयों से सजाया था और स्वर्ण मंदिर (हरमंदिर साहिब) को भी रोशनी से जगमगा दिया था. सिखों के लिए यह घटना न्याय की विजय, मानवाधिकारों की रक्षा और गुरु की असाधारण नेतृत्व क्षमता का प्रतीक है. सिख समुदाय इस दिन विशेष रूप से अखंड पाठ और लंगर आयोजित करते हैं.
बौद्ध धर्म: अशोक का धम्म विजय
बौद्ध धर्म में दिवाली का महत्व हिंदू या जैन धर्म जितना मुख्य नहीं है. लेकिन कुछ बौद्ध परंपराओं खासकर नेवारी बौद्धों (नेपाल) और भारतीय उपमहाद्वीप के बौद्धों के लिए इसके अपने ऐतिहासिक संदर्भ हैं. इस पर्व को प्राचीन काल में महान सम्राट अशोक के साथ जोड़ा जाता है. ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने हिंसा त्याग कर बौद्ध धर्म को अपनाया था. कुछ इतिहासकारों का मत है कि कार्तिक मास की अमावस्या के आसपास ही अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को पूरी तरह से अपनाया और पूरे साम्राज्य में उसके प्रचार के लिए दीये जलाकर ‘धम्म विजय’ का उत्सव मनाया. यह उत्सव शांति और करुणा के प्रसार का प्रतीक बन गया.