एक गुण के बलबूते पर किए जा सकते हैं, भगवान के दर्शन

एक बार किसी ने प्रश्न किया, " महाराज जी! मुझे इतने बरस हो गए, नियमित मंदिर आता हूं, हरिभजन भी करता हूं, आपकी कृपा से सत्संग भी हो जाता है, अच्छा भी लगता है पर जिस वस्तु की तलाश में हम हैं, वह तो कहीं दिख नहीं रही? दुःख अभी भी घर में डेरा जमाए बैठा है। बिमारी भी बिना रोक-टोक आती-जाती रहती है। जबकि आप कहते थे कि भगवान पर सब छोड़ दो, वे सब संभाल लेंगे, वे हमारे परम-पिता हैं, वे नहीं हमारा ख्याल रखेंगे तो कौन रखेगा? लेकिन बात बनती कुछ नजर नहीं आती।"

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मैंने उसे बिठाया व कहा, "पंजाब में एक बात अक्सर बोलते हैं 'ठंड रख ठंड'।"


उन्होंने जवाब दिया, "अभी तक वही तो रखे थे।" महाराज


तब फिर मैंने एक कहानी सुनाई जो गुरुजनों के मुख से सुनी थी। एक बार की बात है। बंदरों की सभा हो रही थी। विषय था 'भोजन'। हर कोई अपनी आप बीती सुना रहा था कि कैसे जब वह बगीचे में फल तोड़ने गया तो डंडे पड़ने लगे। कैसे किसी घर से एक सब्जी का टुकड़ा उठाया तो डंडे पड़े, किसी ने उसे पत्थर फैंक कर मारा इत्यादि। अंत में यह फैसला हुआ कि सब मिलकर स्वयं अपना बगीचा ही लगा लेंगे। सभी ने मिलकर जगह भी निर्धारित कर ली। हर एक को किसी न किसी प्रकार की कलम, बीज, बेल, इत्यादि लाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। अब जब सब इकट्ठे हुए तो कोई लीची की कलम लाया था, तो कोई किसी फल की गुठली।


सब मिलकर जंगल से बहुत दूर एक स्वच्छ स्थान पर गए। काफी दूर तक फैला समतल मैदान था। उन्होंने हाथों से खुदाई की व अपनी कलम या बीज या गुठली जो भी था सब बो दिया। इतने श्रम के बाद सब थक गए और अलग-अलग पेड़ की डालियों पर जाकर सो गए। करीब दो घंटे के बाद उनमें से एक बंदर की नींद खुली। उसने अपने साथी को उठाया व कहने लगा यार, "काफी समय हो गया, लीची लगाए। कोई अन्य उसके फल तोड़ के न ले गया हो। आओ जरा जाकर देख आएं।"


दूसरे साथी ने कहा, "हां यार मुझे मेरे आमों की चिंता हो रही है। इतनी देर में तो पेड़ के ऊपर आम आकर पक भी गए होंगे।"


दोनों ने वहां जाकर देखा तो मैदान समतल। दोनों रोने लगे अरे कोई हमारा पेड़ उखाड़ कर ले गया। अरे चोरी हो गई। उनकी चीख-पुकार से सब बंदर जाग गए व वहां आ पहुंचे। सभी रोने लगे। उनमें से एक कुछ ज्यादा ही समझदार था। उसने कहा, "रो क्यो रहे हो? हो सकता है पेड़ इत्यादि अभी अंदर ही हों। 


सभी ने मिलकर खोदना शुरू कर दिया। सभी ने अपने द्वारा बोए गए बीज इत्यादि उखाड़ लिए। अभी कुछ नहीं हुआ था। अब उन्हें कौन समझाए कि बीज बोने के बाद जल देना होता है फिर बीज अंकुरित होगा उसके बाद पौधा लगेगा, वह बढ़ेगा फिर कच्चे आम आएंगे अौर अंत में पके आम होंगे।


इन सब में सबसे बड़ी कमी थी धैर्य की। धैर्य करते तो कुछ समय उपरांत अपने मन-पसंद फल की प्राप्ति भी हो जाती। जब व्यवहारिक जीवन में धैर्य की इतनी आवश्यकता है तो आध्यात्मिक में क्यों नहीं होगी? धैर्य धरने से ही भगवान सुलभ होते हैं। पुरानी कहावत है सब्र का फल मीठा होता है। अगर शबरी धैर्य न धरती तो क्या भगवान राम चन्द्र आते उनके यहां? शबरी छोटी सी थी जब ॠषि ने उससे कहा था कि भगवान आएंगे तेरे यहां। वृद्धा हो गई पर गुरु की बात पर विश्वास था और धैर्य था। उत्साह था, रोज भगवान के आने की बाट देखती। अन्ततः उसके यहां भगवान आए।


ऐसे ही एक बार भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी जब श्रीवास आंगन में श्रीकृष्ण नाम कीर्तन में रत थे तो उनके लिए श्री वास पंडित जी के यहां काम करने वाली प्रतिदिन जल लेकर आती थी। यही सोचकर की कभी न कभी भगवान कृपा करेंगे। उसकी सेवा कोई विशेष नहीं पर अटल धैर्य था कि कभी न कभी तो भगवान की दया दृष्टि होगी। धैर्य होगा तो उत्साह भी रहेगा।


अन्ततः भगवान महाप्रभु जी को एक बार गर्मी लगी व उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। वहीं श्री वास आंगन में भक्तों ने मिलकर उन्हें स्नान कराया। सारा का सारा जल श्री वास जी की वही सेविका ही लेकर आई थी। अतः धैर्य से ही भगवान मिलते हैं। धैर्य से ही जीवन में सुख आता है। धैर्य धरने से ही विश्वास जगता है। अगर आप में विश्वास है कि भगवान कृपा अवश्य करेंगे तो भगवान भी पीछे नहींं रहेंगे। बस आवश्यकता है तो केवल मात्र धैर्य की।


श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज

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