गुरु गोविंद सिंह: 350वें प्रकाशोत्सव पर जानिए गुरु से जुड़ी ये 5 ख़ास बातें
सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के 350वें प्रकाशोत्सव को आज देश भर में धूम-धाम से मनाया जा रहा है। इस मौके पर उनकी जन्मस्थली पटना साहिब में बड़ा जश्न मनाया जा रहा है जबकि पीएम नरेंद्र मोदी पटना के गांधी मैदान में आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करेंगे। बता दें कि गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म पटना में 1666 ईस्वी में हुआ था। तख्त श्री हरमंदिर जी पटना साहिब से थोड़ी दूर हरिमंदिर गली में स्थित बाललीला साहिब (मैनी संगत) गुरुद्वारा है।
सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु के रूप में प्रसिद्ध गुरु गोबिंद सिंह बचपन ने बहुत ही ज्ञानी, वीर, दया धर्म की प्रतिमूर्ति थे। खालसा पंथ की स्थापना कर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख धर्म के लोगों को धर्म रक्षा के लिए हथियार उठाने को प्रेरित किया। पूरी उम्र दुनिया को समर्पित करने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी ने त्याग और बलिदान का जो अध्याय लिखा वो दुनिया के इतिहास में अमर हो गया। जानिए 'वाहे गुरु' से जुड़ी 5 ख़ास बातें…
1. महान ज्ञानी और वीर
शायद आप न जानते हों लेकिन गुरु गोबिंद सिंह ने बहुत कम उम्र में ही तमाम भाषाएं जैसे- संस्कृत, ऊर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, ब्रज, पारसी आदि सीख ली थीं। इसके अलावा एक वीर योद्धा की तरह उन्होंने तमाम हथियारों को चलाने के साथ ही कई युद्धक कलाओं को भी सीख लिया था और तो और खास तरह के युद्ध के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने खास हथियारों पर भी महारथ हासिल कर ली थी। उनके द्वारा इस्तेमाल किया गया नागिनी बरछा आज भी नांदेड़ के हुजूर साहिब में मौजूद है। युद्ध के दौरान मुगलों द्वारा छोड़े गए पागल हाथियों को मारने के लिए ये एक कारगर हथियार था।
2. गुरु को चढ़ता है चने का प्रसाद
गौरतलब है कि पटना में फतह चंद मैनी नाम के एक बड़े जमींदार थे, उनको राजा का खिताब भी मिला था। उनकी पत्नी विश्वंभरा देवी को कोई संतान नहीं थी। गोविंद राय (गुरु गोविंद सिंह के बचपन का नाम) साथियों के साथ यहां खेलने आते थे। रानी विश्वंभरा देवी गोविंद राय जैसे बालक की कामना कर रोज प्रभु से प्रार्थना करती थी। इसी दौरान एक दिन गोविंद राय रानी की गोद में बैठ गए और उन्हें मां कहकर पुकारा। रानी खुश हुई और उन्हें धर्मपुत्र स्वीकार कर लिया।
बाल गोविंद ने रानी से कहा, 'बहुत जोर से भूख लगी है, कुछ खाने को दो।' रानी के घर में उस समय चने की घुघनी के अलावा कुछ नहीं था। रानी ने गोविंद को वही खाने को दे दिया, जिसे गोविंद ने स्वयं खाया और दोस्तों को भी खिलाया। बाललीला गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सचिव सरदार राजा सिंह ने बताया कि तभी से यहां संगतों को प्रसाद के रूप में चने की घुघनी दी जाती है। बाद में हालांकि विश्वंभरा रानी को चार पुत्र हुए। यहीं बालक गोविंद बाग में खेलते थे। इसी कारण इस स्थान पर बाललीला गुरुद्वारा बना। सिंह ने बताया कि गुरुपर्व की तैयारी यहां पूरी कर ली गई है। संगतों के ठहरने के लिए विशेष इंतजाम किए गए हैं।
3. वीर शहीदों की संतान गुरु गोबिंद सिंह
गुरु गोबिंद सिंह बचपन ने लोगों की भलाई के लिए जी जान लगाने को उत्सुक रहते थे। एक बार तमाम कश्मीरी पंडित औरंगजेब द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराए जाने से बचने के लिए उनके पिता गुरु तेग बहादुर के पास सहायता मांगने आए थे। उस समय गुरु गोबिंद सिंह यानि गोविंद राय की उम्र सिर्फ नौ साल थी, लेकिन कश्मीरी पंडितों का कष्ट जानकर उन्होंने अपने पिता से कहा कि इस समय धरती पर आपसे ज्यादा महान और शक्तिशाली और कौन है, इसलिए आपको इस पंडितों की सहायता के लिए जरूर जाना चाहिए। आखिरकार उन्होंने अपने पिता को औरंगजेब के अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए भेज ही दिया। इसके कुछ समय बाद ही पिता की के शहीद होने पर नौ बरस की कम उम्र में ही उन्हें सिक्खों के दसवें गुरु के तौर पर गद्दी सौंप दी गई थी।
4. खालसा पंथ की स्थापना
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च 1699 को आनंदपुर, पंजाब में अपने अनुयायियों के साथ मिलकर राष्ट्र हित के लिए बलिदान करने वालों का एक समूह बनाया, जिसे उन्होंने नाम दिया खालसा पंथ। खालसा फारसी का शब्द है, जिसका मतलब है खालिस यानि पवित्र।
यहीं पर उन्होंने एक नारा दिया 'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह'। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा बनाया गया खालसा पंथ आज भी सिक्ख धर्म का प्रमुख पवित्र पंथ है, जिससे जुड़ने वाले जवान लड़के को अनिवार्य रूप से केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण धारण करनी होती है। सिक्ख धर्म के लोग 'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह' नारा बोलकर आज भी वाहे गुरु के लिए सब कुछ करने की सौंगध खाते हैं।
5. महान कवि और योद्धा
गुरु गोबिंद सिंह युद्ध कला के साथ साथ लेखन कला के भी धनी थे। उन्होंने 'जप साहिब' से लेकर तमाम ग्रंथों में गुरु की अराधना की बेहतरीन रचनाएं लिखीं। संगीत की द्रष्टि से ये सभी रचनाएं बहुत ही शानदार हैं। यानि सबद कीर्तन के रूप में उन्हें सुर और ताल के साथ मन को छू लेने वाले अंदाज में गाया जा सकता है।
बता दें कि गुरु गोबिंद सिंह जी एक जन्म जात योद्धा थे, लेकिन वो कभी भी अपनी सत्ता को बढाने या किसी राज्य पर काबिज होने के लिए नहीं लड़े। उन्हें राजाओं के अन्याय और अत्याचार से घोर चिढ़ थी। आम जनता या वर्ग विशेष पर अत्याचार होते देख वो किसी से भी राजा से लोहा लेने को तैयार हो जाते थे, चाहे वो शासक मुगल हो या हिंदू। यही वजह रही कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब के अलावा, गढ़वाल नरेश और शिवालिक क्षेत्र के कई राजाओं के साथ तमाम युद्ध लडे। गुरु गोबिंद सिंह जी की वीरता को यूं बयां करती हैं ये पंक्तियां “सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ”।