पितरों के आशीष पाने का अवसर श्राद्ध पक्ष

'श्रद्धया यत् कृतं तत् श्राद्धम।

इसका मतलब है कि 'हमारे दिवंगत स्वजनों की तृप्ति और संतुष्टि के लिए श्राद्ध से किया कर्म ही श्राद्ध है।'

पुराण आदि धर्मग्रंथों में बतलाया है कि मृत व्यक्ति की आत्मा अनंत काल तक प्रेतलोक में भटकती रहती है, किंतु जब उस मृत व्यक्ति के पुत्र-पौत्र उसका श्राद्ध करेंगे तभी उसकी आत्मा प्रेतलोक से पितृलोक में प्रवेश करेगी। जहां वे सुख चैन से पुनर्जन्म होने तक रहेंगी। इस आस्था से शास्त्रों में कहा है कि प्रत्येक पुत्र-पौत्र को अपने दिवंगत माता-पिता, बंधुजनों की तृप्ति के लिए, उनके निमित्त श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यह श्राद्ध, पितृ-पक्ष में उस व्यक्ति की मृत्यु तिथि के दिन किया जाता है।

वस्तुत: भाद्रपद में पूर्णमासी से अमावस्या तक सोलह दिनों का पक्ष श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इसे 'महालय" भी कहते हैं। अग्निपुराण में उल्लेख है कि मृत्यु-तिथि के दिन पुत्र अपने भूख प्यास से व्याकुल पितरों को सम्मानपूर्वक भोजन के लिए आमंत्रित करें। शुक्ल यजुर्वेद में आह्वान का मंत्र है 'आ यान्तु पितरा: सौम्यासो अग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवनयानै:'। अर्थात 'हे सौम्य पितरो! आप अपने देवयान से यहां पधारें और इस अमृत स्वरूप पकवान को आनंद पूर्वक ग्रहण करें।'

इस आह्वान के बाद पितरों को काले तिल मिश्रित जल से तर्पण करे और जौ के आटे या पके चावल के उतने पिंड बनाएं जितने माता-पिता बंधुजन दिवंगत हुए हैं, क्योंकि ये पिंड पितरों के प्रतीक हैं, अत: इन पिंड स्वरूप पितरों को मधु खीर और कई स्वादिष्ट पकवान सहित भोजन कराएं।

चूंकि पितर सूक्षम रूप में आते हैं, अत: वे इन स्वादिष्ट पकवानों को सूंघकर तृप्त हो जाते हैं और ये पितर अपनी संतानों को धन-धान्य, सुख-संपत्ति से परिपूर्ण होने का आशीर्वाद देकर अपने पितृलोक में प्रस्थान कर जाते हैं। इस प्रसंग में धर्मग्रंथों में यह भी कहा गया है कि पितरों के आशीर्वाद देवताओं के आशीर्वाद से अधिक फलदायी होते हैं और जितना फल हवन-यज्ञ, तीर्थ-गमन, व्रत-उपवास से नहीं मिलता है, उससे अधिक फल श्राद्ध कर्म से मिल जाता है।

अत: पुत्र-पौत्रों को पितरों का आशीष पाने के लिए श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध जरूर करना चाहिए। यह श्राद्ध कर्म, तीर्थ-स्थल, नदी तट पर या अपने घर में किया जा सकता है। श्राद्ध करने का समय दोपहर 12 बजे से सूर्यास्त तक रहता है क्योंकि प्रात:काल देवताओं के पूजन का समय होता है और मध्याह्न काल पितरों का।

श्राद्ध कर्म में यह भी विधान है कि पिंड को भोजन का भोग लगाने के बाद एक, तीन या पांच ब्राह्मणों को श्राद्ध भोजन कराएं, क्योंकि ये ब्राह्मण शास्त्रों में पितर स्वरूप बतलाये गए हैं। भोजन के पश्चात इन ब्राह्मणों को यथाशक्ति दान-दक्षिणा देकर सम्मान से विदा करें।

महालय श्राद्ध में यदि कोई व्यक्ति शारीरिक या आर्थिक क्षमता के कारण विस्तार से न कर पाए तो यह विधान है कि वह चावल की खीर को गोबर के जलते कंडे पर अपने पितरों का स्मरण करते हुए तीन आहुति दे दे। साथ ही बनाए गए भोजन में से एक ग्रास गाय के लिए, एक श्वान के लिए, एक कौए के लिए और चौथा चींटी के लिए निकालें और उन्हें खिलाएं। या फिर आटा, दाल, चावल, गुड आदि मंदिर में रख दें। इस सूक्षम विधि से भी पितर तृप्त हो जाते हैं।

पुराणों में गया तीर्थ में पिंड दान या श्राद्ध करने का विशेष फल बताया है। गया तीर्थ में पिंडदान करने से सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है और पितरों को स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है और पुत्र-पौत्रों को दीर्घायु-आरोग्य, धन और ऐश्वर्य जैसी अक्षय संपदा की प्राप्ति हो जाती है।

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