मर्यादित रहना ही सबसे बड़ी तपस्या

सनातन परंपरा में चार पुरुषार्थों को जीवन-कर्तव्य के रूप में माना गया है। ये पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों को अपना जीवन-कर्तव्य मानकर हर स्थितियों में जो पूरा करता जाता है, उसके लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के उद्देश्य पूरे होते हैं। इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष अंतिम है, जो लौकिक जीवन में किए गए कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है। धर्म और अर्थ सांसारिक जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं, काम और मोक्ष पारलौकिक जीवन को। अर्थ की कामना और इससे मिलने वाले सुख, इसी तरह मोक्ष की कामना से मिलने वाले सुख या आनंद के संबंध में कोई नियम निर्धारित नहीं है। लेकिन, इतना है कि सत्य, शुभ, शांति, प्रेम और न्याय से युक्त कर्म करने वाला व्यक्ति जब योग साधना की ओर उन्मुख होता है, तो उसका ध्यान बहुत जल्द लग जाता है। वह स्वयं में पल भर में डूब जाता है। यह सांसारिक आनंद नहीं है। सांसारिक संसाधनों से ऐसे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।

विचारणीय बात यह है कि सांसारिक संसाधनों से मिलने वाले सुख या आनंद में ऊब लगती है, जैसे रसगुल्ले या कोई भी मनपसंद मिठाई बड़ी मात्रा में खा तो सकते हैं, लेकिन रोज़ाना नहीं। एक समय ऐसा आता है कि उसे खाने की इच्छा एकदम खत्म हो जाती है। यानी रसगुल्ले का आनंद कुछ ही दिन लिया जा सकता है, लेकिन योग साधना में मिलने वाला आनंद रात-दिन और जब तक जीवन है, तब तक बिना उकताहट के लिया जा सकता है। इसका आनंद दिनोदिन बढ़ता जाता है, जबकि सांसारिक सुख उकताहट और बेचैनी पैदा करते हैं। इसमें ऊर्जा का क्षय होता है, जबकि पारलौकिक आनंद में आत्मा और प्राणों में ऊर्जा संगृहीत होती रहती है। यही संगृहीत ऊर्जा साधक को समाधि की ओर ले जाती है। और समाधि में परमेश्वर के साक्षात्कार का आनंद प्रत्येक तरह के आनंद से बढ़कर है।

 
आजकल कुछ ही समय में ईश्वर के साक्षात्कार की बातें खूब की जाती हैं। ये महज बातें ही हैं। तामसिक और राजसिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को ईश्वर में ध्यान या आत्मसाधना में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। आयुर्वेद के अनुसार ये दोनों गुण (राजसिक व तामसिक) मन की अतिशय चंचलता को बढ़ाते रहते हैं। योगसाधना के लिए तो सात्विक प्रवृत्ति का होना अति आवश्यक है। यह बात अलग है कि राजसिक कर्म करते हुए भी सुख का अहसास किया जा सकता है और तामसिक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी अपने कार्य में सुख का अहसास कर सकता है, लेकिन मोक्ष या परमानंद के लिए सात्विकता का होना आवश्यक है।

धैर्य, प्रेम, त्याग और क्षमा

आनंद या सुख का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन लक्षणों के आधार पर यह जरूर समझा जा सकता है कि व्यक्ति वास्तव में सुखी है या नहीं। जैसे सांसारिक कार्यों को सात्विकता और सर्वहित की भावना से करने पर व्यक्ति का मुखमंडल शांति और कांति युक्त हो जाता है। धैर्य, प्रेम, त्याग और क्षमा उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाते हैं। भगवान राम का जीवन ऐसा ही था। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं- श्रीराम अत्यंत शांत स्वभाव के, धैर्यवान, सबसे प्रेम करने वाले, क्षमावान, दयालु और सहिष्णु हैं। वे सांसारिक जीवन में रहते हुए भी मर्यादित हैं। गौरतलब है कि लौकिक जीवन में मर्यादित रहना किसी तपस्या से कम नहीं है, क्योंकि यहां परीक्षा हर पल होती है। धन-सम्पत्ति अर्जन के लिए झूठ, फरेब, छल-छद्म और विश्वासघात करने के लिए मन बार-बार उकसाता है। ऐसे में जन जीवन-नियम के अनुसार मर्यादित रहना एक तपस्या है। इस तपस्या में श्री राम एक बार भी उनुत्तीर्ण नहीं हुए। ऐसे लौकिक जीवन में जो सुख है, वह सुख ही सच्चे मायने में जीवन-सुख है। इस सुख में विस्तार और संतोष है। संतोष को शास्त्र में ‘परम-सुख’ कहा गया है। राम इसीलिए सुखी हैं। श्री कृष्ण इसीलिए सुखी हैं। वे सांसारिक सुख में लिप्त नहीं होते। उनके लिए धन-सम्पति जीवन निर्वाह के साधन हैं, साध्य नहीं हैं। आम आदमी और प्रज्ञा पुरुषों में यही अंतर है। सामान्य व्यक्ति के लिए सांसारिक संसाधन साध्य हैं। वह अपने साध्य के लिए कुछ भी करने में हिचकिचाता नहीं। बार-बार जीवन-नियम को तोड़ता है।

द्वंद्व से छूटना प्रथम सोपान

वेद में कहा गया है-‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति’ यानी ज्ञानपूर्वक कर्म करने में ही मुक्ति व आनंद है। जब ज्ञानपूर्वक हम कर्म करते हैं तो ‘किंतु-परंतु’ ‘लाभ-हानि’ ‘अपना-पराया’ ‘झूठ-सच’ जैसे द्वंद्वों से ऊपर उठे हुए होते हैं। गीता में कहा गया है… द्वंद्व से छूटना साधना का प्रथम सोपान है। जब हम द्वंद्व से छूट जाते हैं, तब हम स्वयं को देखने और समझने लगते हैं। जब तक हम द्वंद्व में रहते हैं तब तक दूसरों को देखने और समझने में ही अपना कीमती वक्त लगाते रहते हैं। इसलिए जीवन का आनंद खुद से दूर रहता है। द्वंद्व से छूटने का मतलब जीवन में पवित्रता, शांति, प्रेम, क्षमा और सहिष्णुता का प्रवेश हो गया है। तब हम अपने स्वयं के श्रोता और प्रवचनकर्ता स्वयं होते हैं। हमारे अंदर जो होता है, वही बाहर भी होता है। भगवान राम, कृष्ण हमारे लिए पूज्य इसीलिए हैं कि उनके अंदर और बाहर में कोई अंतर नहीं है। यदि हम भी इस अंतर को समाप्त कर पाएं, तो सांसारिक सुख से आगे का हमारा सफर निष्कंटक बन सकता है।
 

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