सुकमा में मारे गए जवानों को ‘शहीद’ का दर्जा नहीं देती सरकार

पैरामिलिट्री के जवान नहीं होते 'शहीद'

जब अर्द्धसैनिक बल के जवान वीरगति को प्राप्त होते हैं, तो सम्मान और मुआवजे में उन्हें वही दर्जा नहीं मिलता जो फौजियों को मिलता है. अब इस गैरबराबरी को दूर करने की आवाज़ फिर उठ रही है.

शहीद तो कश्मीर के कुपवाड़ा में भी हुए हैं और बस्तर के सुकमा में भी. पर उनकी शहादत का दर्जा भारत सरकार के लिए अलग अलग है. शहीद के परिवारों को जो मुआवजा फौजी होने पर मिलता है, पैरामिलिट्री में नहीं. गैर फौजी शहीदों के परिवार वाले एक और बार अपनी आवाज़ उठा रहे हैं.

संसद में सरकार बता चुकी है कि पैरामिलिट्री जवानों के ड्यूटी पर जान गंवाने पर शहीद शब्द का आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता. 14 मार्च को लोकसभा में एक जवाब में गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने ये साफ किया था कि किसी कार्रवाई या अभियान में मारे गए केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और असम राइफल्स के कर्मिकों के संदर्भ में शहीद शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है.

जब गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर से बात की तो उन्होंने अचरज के साथ अनभिज्ञता भी जाहिर की, “ये तो हो ही नहीं सकता कि हम उन्हें शहीद न मानें. हम तो अपने भाषणों में भी उन्हें शहीद कहते हैं. अगर कागजों में उन्हें शहीद नहीं माना जा रहा है तो मैं आज ही इस मामले को दिखवाता हूं. इस संबंध में हम कोशिश नहीं पूरे प्रयास करेंगे कि उन्हें भी शहीद का दर्जा मिले.”

जवान हो या अफसर शहीद का आधिकारिक दर्जा दिए जाने के साथ ही परिवार को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मिलनी शुरु हो जाती हैं. राज्य सरकारें शहीद परिवार के लिए सुविधाओं की घोषणा करती तो हैं, पर किसी स्पष्ट और स्थापित नीति के तहत नहीं.

नेशनल कोआर्डिनेशन ऑफ एक्स पैरामिलट्री पर्सनल वेलफेयर एसोसिएशन के चेयरमेन और आईजी सीआरपीएफ रिटायर्ड वीपीएस पनवर का कहना है कि शहीद का दर्जा दिए जाने के मुद्दे पर हमने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की हुई है. हम शाहदत के दोहरे मापदण्ड की लड़ाई लड़ रहे हैं. इस पर करीब चार महीने पहले केन्द्र सरकार ने हलफनामा देते हुए कहा है कि हम शहीद का दर्जा कैसे दे सकते हैं क्योंकि हमारे पास शहीद के दर्जे की कोई परिभाषा ही नहीं है.

सीमा सुरक्षा बल में कमांडेट रहे सेवानिवृत लईक सिद्दीकी कहते हैं कि सेना के जवानों को शहीद का दर्जा ही नहीं डयूटी के दौरान सामान्य मौत होने पर भी बहुत सारी सुविधाएं मिलती हैं. लेकिन बीएसएफ, सीआरपीएफ सहित दूसरी फोर्स के जवानों को आतंकवादियों और नक्सलियों से मुठभेड़ में वीरगति मिलने के बाद भी न तो शहीद का दर्जा मिलता है और न ही उसके परिवार को कोई अतिरिक्त सुविधा.

वाइस ऑफ मर्टियर्स संस्था के अध्यक्ष विजय कुमार सांगवान का कहना है कि हम पैरामिलट्री फोर्स के जवानों को भी शहीद का दर्जा दिए जाने की आवाज उठा रहे है. देश की रक्षा के लिए लड़ने वाले दो लोगों के बीच इस तरह का भेदभाव अच्छा नहीं है. दुश्मन से लड़ते हुए अपनी जान देने वाले सभी जवानों की जिंदगी उनके परिवार वालों के लिए बराबर का दर्जा रखती है.

दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ में 2010 को मुठभेड़ में मारे गए निर्वेश कुमार के पिता प्रीतम सिंह का कहना है कि सेना दुश्मन से बार्डर पर लड़ती है और पैरामिलिट्री फोर्स का जवान देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए देश के अंदर ही मौजूद दुश्मनों से लड़ता है. लेकिन सरकार इस पर दोहरी नीति अपनाती है. सवाल सुविधाओं का नहीं है. दोनों की ही शाहदत को बराबर का दर्जा मिलना चाहिए. मैं इस लड़ाई को उस वक्त तक लड़ता रहूंगा जब तब मेरे बेटे ही नहीं दूसरे जवानों को भी उनका हक नहीं मिल जाता है.

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