गोरखपुर व बस्ती मंडल में 77 वर्षों में एक महिला सांसद, सोचने पर मजबूर कर देगा यह आंकड़ा
गोरखपुर। जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। यह बात कहने-सुनने में अच्छी लगती है, परंतु संदर्भ जब राजनीति में महिला दखल का हो तो बहुत सालती है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने में पुरुषों से आगे रहने वाली पूर्वांचल की महिलाएं प्रतिनिधित्व पाने में अंतिम पायदान पर हैं।
राजनीति का ककहरा सीखने के लिए उर्वरा कहे जाने वाले गोरखपुर व बस्ती मंडल में 77 वर्षों के भीतर महज एक महिला सांसद चुनी जा सकीं। राष्ट्रीय राजनीति में महिलाएं बेशक उच्च शिखर पर पहुंची हैं, लेकिन पूर्वांचल में उनके हिस्से में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नजर नहीं आती।
बड़े राजनीतिक दल या यूं कहें जिताऊ पार्टी, महिला प्रत्याशी पर भरोसा न के बराबर जताती हैं। कारण चाहे जो हों, लेकिन आंकड़े इसका प्रमाण हैं। आजादी के बाद लोकसभा के 17 चुनावों में 22 महिलाएं ही यहां से प्रत्याशी बनीं, जबकि मैदान में कुल प्रत्याशियों की संख्या 150 से अधिक थी।
कांग्रेस, सपा और जनता दल ने तो महिलाओं को अवसर भी दिया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने इस इलाके में आज तक किसी महिला को प्रत्याशी नहीं बनाया। यद्यपि नारी शक्ति को अधिकार और सम्मान देने के लिए भाजपा ने ही उस महिला आरक्षण कानून को संसद में पास कराया जो 1998 से लंबित था।
पति ओमप्रकाश पासवान की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर में सपा के टिकट पर बांसगांव सीट से मैदान में उतरीं सुभावती पासवान इकलौती महिला सांसद रही हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व संसद में किया। इसके बाद वह तीन बार चुनाव लड़ीं, लेकिन जीत नहीं सकीं।
सुभावती की राजनीतिक विरासत को उनके बेटे कमलेश पासवान आगे बढ़ा रहे हैं। भाजपा के टिकट पर तीन बार से सांसद चुने जा रहे कमलेश इस बार भी बांसगांव सीट से प्रत्याशी हैं। वर्तमान चुनाव की बात करें तो गोरखपुर सीट से सपा के टिकट पर मैदान में उतरीं काजल निषाद इकलौती महिला प्रत्याशी हैं, जिसे किसी बड़े राजनीतिक दल ने उम्मीदवार बनाया है।
राजनीतिक विश्लेषक डा. महेंद्र सिंह भी राजनीति में महिलाओं के कम दखल को चिंताजनक मानते हैं। गहन पितृसत्तात्मक समाज को वह इसका प्रमुख कारण बताते हैं। उनका मानना है कि राजनीतिक दलों के भीतर भी पितृसत्तात्मक सोच प्रभावी है। जनप्रतिनिधियों के भीतर मौजूद यह पूर्वाग्रह आंकड़ों से और स्पष्ट हो जाता है। ज्यादातर महिलाओं को राजनीति में तभी अवसर मिलता है जब उन्हें किसी कारणवश पिता या पति की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना या बचाना होता है। राजनीति में इस सोच को बदलना होगा। क्योंकि, यही वो मंच है जहां से समाज में तेजी से बदलाव लाया जा सकता है।
आगे आईं पर समर्थन नहीं पाईं
ऐसा नहीं है कि गोरखपुर और बस्ती मंडल की नौ लोकसभा सीटों पर महिलाओं ने अपने अधिकार और अस्तित्व की लड़ाई लड़ी नहीं। वह आगे आईं, मगर उनका प्रयास सफल न हो सका। कुछ राजनीतिक दलों ने कद्दावर महिला नेताओं को भी इस इलाके में प्रत्याशी बनाया, लेकिन जनता ने उन्हें संसद तक नहीं पहुंचाया। गोरखपुर मध्य से चुनाव लड़ने वाली देश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी हों या डुमरियागंज से मैदान में उतरीं कैबिनेट मंत्री रह चुकीं मोहसिना किदवई सभी को हार का मुंह देखना पड़ा।
महिलाएं लड़ीं पर जीत न सकीं
1952 : सुचेता कृपलानी (चौथा) कमला सहाय (तीसरा)
1962 : कमला सहाय (चौथा) आनंदेश्वरी (चौथा)
1980 : मालती पांडेय (तीसरा)
1984 : उषा (नौवां)
1991 : मोहसिना किदवई (दूसरा), सीमा मुस्तफा (चौथा), मोहिनी देवी (चौथा), शशि शर्मा (तीसरा)
1996 : मोहसिना किदवई (पांचवां), सुभावती पासवान (पहला), शशि शर्मा (चौथा)
1998 : सुभावती पासवान (दूसरा)
1999 : सुभावती पासवान (दूसरा), तलत अजीज (तीसरा)
2004 : सुभावती पासवान (चौथा), तलत अजीज (चौथा)
2009 : शारदा देवी (तीसरा)
2014 : वसुंधरा (चौथा), राजमति निषाद (दूसरा)
2019 : सुप्रिया श्रीनेत (तीसरा)