इस वजह से सुविधाएं होने के बाद भी नहीं मिलता वक्त

सब कुछ है बस वक्त नहीं है। जिससे पूछिए, वह व्यस्तता के इतने पन्ने खोल देगा कि आप तौबा कर लें। छोटा बच्चा हो या आसमान ताकता कोई बूढ़ा, दोनों कहते मिल जाएंगे कि हम बिजी हैं। हमारे पास अब इतनी फुर्सत ही नहीं कि कुछ और सोच पाएं। नौकरी करने वाला तो और भी पहाड़ तोड़कर आता है। लगता है कि उसे किसी खून चूसने वाली मशीन में सुबह भेज दिया गया, जहां वह शाम को गन्ने की खोई की तरह चुसा हुआ लौटता है। क्या वाकई हमारे पास वक्त नहीं रहा?
एक बार अपने आप को पुराने वक्त से मिला कर देखो। अब हम बैंको में घंटो लाइन लगाकर न पैसा निकालते हैं और न जमा करते हैं। यह काम फोन पर हो जाता है। अब हम सुबह से ही ट्रेन के टिकट के लिए लाइन नहीं लगाते, यह भी फोन से हो जाता है। जो तमाम सामान हम बाजार में धूल फांककर खरीदते थे, एक फोन पर हमारे घर आने लगा है। स्कूल की फीस भी ऑनलाइन जमा हो रही है। और तो और, सत्संग भी फोन पर उपलब्ध हैं। आज के समय हमारे पास जितनी भी सुविधाएं आ रही हैं इनमें सबसे पहले यही ध्यान रखा जा रहा है कि हमारा कम से कम समय लगे।
अब दूसरी बात समझिए। हम हर तरह का जतन करके वक्त बचा रहे हैं, वह बचकर आखिर जा कहां रहा है? यह जो हमने अच्छी सड़कों से मंजिल तक पहुंचने का समय कम किया, वह कहां गया? हमने जो तेज रफ्तार गाड़ियां लेकर अपना वक्त बचाया, वह कहां गया? तमाम लाइनों को छोड़ने बाद जो वक्त बचा, वह कहां फुर्र हो गया? इतनी सारी जो जद्दोजहद की गई, उनसे बचा हुआ वक्त आखिरकार कहां गया, जो हम आज भी हैरान परेशान बस एक ही रट्टा लगा रहे हैं कि हमारे पास वक्त नहीं है। ऐसा भी नहीं हो गया कि अब दिन चौबीस घंटे का नहीं बल्कि सोलह घंटे का हो गया है। फिर यह कौन सा गणित है जिसमें कटौती के बाद सिफर बचता है?

मामला असल में यह है कि हम भेड़चाल के जबरदस्त आदी हो चुके हैं। एक ने कहा हम बिजी हैं, वक्त ही नहीं मिलता। बस, फिर तो यह हर एक का सूत्र वाक्य हो गया। अब हर एक बिजी हो गया। जो बिजी नहीं रहा, वह निठल्ला घोषित हो गया। अब खुद को कोई निठल्ला कहलवाना तो पसंद करेगा नहीं। फिर हुआ यह कि अक्लमंद लोगों ने बिजी कहलवाना ज्यादा पसंद किया। हमने नहीं देखा कि जिसके पास हर एक के लिए वक्त है, वह कितना व्यस्थित है। हमने नहीं सोचा कि जिसके पास किसी के लिए वक्त नहीं है, वह कितना अव्यस्थित है। हमने व्यस्थित की इज्जत न करके अव्यस्थित को सिर चढ़ाया।
यह जान लें कि हर एक को दिनभर में चौबीस घंटे ही मिलते हैं। जो इसको व्यवस्थित तरीके से गुजारेगा, वह वक्त का रोना नहीं रोएगा। जो इसे अव्यवस्थित रखेगा, वह ताउम्र रोता रहेगा कि वक्त नहीं है। अपने समय को घड़ी की सुइयों से चलाएंगे तो हर सेकेंड आपको अपने होने का अहसास कराएगा। सुबह फिर सुबह लगने लगेगी, दोपहर फिर दोपहर की तरह आएगी। यह संभव है, बस इंसान बन जाइए। चौबीस घंटे में हर एक के हिस्से के मिनट निकालना सीख लें, तो कभी नही रोएंगे कि वक्त नहीं है।
 

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