कल्पेश याग्निक का कॉलम: वसुंधराजी, मीडिया का दमन कीजिए; कम से कम मैं तो आपके साथ हूं

‘पत्रकार अलग ही तरह के रक्तबीज होते हैं। उन पर वार करो, तो हर रक्त बूंद से पत्रकार पैदा होंगे- किन्तु वे अलग-अलग शिकार ढूंढ़ेंगे, एक नहीं।’ -एक विचार, जो अभी आया नहीं है।

जी, हां, यह विचित्र लग सकता है। किन्तु सत्य है।

मीडिया को रोकना ही चाहिए। दिन रात घात लगाए घूमते रहते हैं पत्रकार। ख़बर ढूंढ़ने। शिकारी कुत्तों और भूखे भेड़ियों को भी इतना स्वस्फूर्त नहीं देखा। वॉचडॉग कहे जाते हैं। किन्तु क्राउचिंग टाइगर की तरह, बस हमले को तत्पर। और निर्मम भी वैसे ही।

कभी नहीं सोचते कि लोक-सेवक की भी कुछ इच्छाएं होती होंगी। कभी नहीं समझते कि अफसरों ने जो घूस ली है – वो उन्होंने तभी ली होगी न, जब किसी ने दी होगी!

पत्रकारों में इतनी गहरी समझ कहां? और, पत्रकारों को उनकी पत्रकारिता के बचपन से एक तयशुदा वॉकुबलरी सिखा दी जाती है :

अफसर – तो हमेशा ‘अपराइट’ 

अफ़सर का ट्रांसफर – तो हमेशा ‘मोटिवेटेड’

अफ़सर, किन्तु पकड़ा जाए – तो ‘करोड़ों कमाए’

अफ़सर, यदि छूट गए – तो ‘करोड़ों दे कर छूटा’

अफ़सर, यदि प्राइम पोस्टिंग पाए – तो ‘मुख्यमंत्री का खास’

अफ़सर, यदि लूपलाइन में जाए – तो ‘जरूर मुख्यमंत्री का कोई काम बिगाड़ दिया होगा’

अफ़सर – एक ऐसा ‘जन्तु’ जो बेईमान है, तो कभी पकड़ा जाएगा ही नहीं। रेअरेस्ट ऑफ रेअर ही गिरफ्त में आएगा।

अफ़सर – यदि ईमानदार है, तो बाकी सब को बेईमान सिद्ध करने की कोशिश करता रहेगा। बल्कि बेईमान ही कहेगा।

तो, ऐसी परिभाषाएं पत्रकार को रट जाती हैं। वह इन्हीं धारणाओं को लेकर, एक शिकार पर प्रतिदिन निकल जाता है।

कैसा काम है, यह?

पत्रकारों को कोई काम ही नहीं और?

हमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में प्रेस की आज़ादी को धमकाने-कुचलने-ख़त्म करने की कितनी सारी कहानियां सुनने में आ रही हैं।

किन्तु सरल, शांत स्वभाव वाले हमारे पिछले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कुछ सिलेक्ट संपादकों को व्यक्तिगत रूप से बुलाकर ऐसी ही बात अपनी शैली में कही थी कि मीडिया, महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर टूजी, कॉमनवेल्थ, कोयला वगैरह में घोटाले ढूंढ़ने में लग गया है। संभवत: कोयला घोटाले का ज़िक्र उन्होंने नहीं किया था। यहां ग़लती से लिखा गया।

कितना कहा था उन्होंने।

मीडिया, महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर हमेशा ‘कहां ग़लत हो रहा है,’ बस यह खोजने में जुटा रहता है।

जबकि, देश में लम्बे अरसे से कोई ‘इन्वेस्टीगेटिव’ जर्नलिज़्म तो देखने में ही नहीं आया।

अब यदि कोई सत्तारुढ़ पार्टी के शक्तिशाली अध्यक्ष के पुत्र के द्वारा प्राप्त लोन को लेकर, रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज़ के सार्वजनिक दस्तावेजों को सामने लाकर यह स्टोरी कर दे, कि ‘अमित शाह के पुत्र जय शाह का कारोबार 16 हजार गुना बढ़ा’ – तो यह कोई खोजपरक पत्रकारिता तो है नहीं।

किन्तु, बस इसके विरुद्ध जय शाह ने 100 करोड़ का मानहानि मुकदमा कर दिया तो पत्रकार भड़क गए। कि यह प्रेस की आज़ादी पर हमला है!

पत्रकार क्यों नहीं समझते कि मुनाफ़ा कमाना, कारोबारी की आज़ादी है। मीडिया क्यों नहीं सुनता कि मुकदमा करना, प्रताड़ित पक्ष की आजा़दी है। इस महान देश में केवल प्रेस को आज़ादी नहीं है।

अन्य को भी है।

किन्तु पत्रकार है कि मुनाफ़ा बढ़ने की तारीख़ निकालने लगते हैं। उसे, सत्ता पाने की तारीख से मिलाने लगते हैं। और, कुछ कहे बग़ैर मानते नहीं।

यहीं नहीं रुकते।

इसके आसपास फिर कोई अन्य पत्रकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के न जाने किन तारीखों के कौनसे टिकट किस ग़लत आदमी ने खरीदे थे – यह लाने लगते हैं।

किसी को भी नहीं छोड़ते। किसी के नहीं हैं पत्रकार!

बड़े ‘निष्पक्ष’ बने फिरते हैं। आपस में अलग झगड़ते रहते हैं।

कि तुम उसे बचा रहे हो। वो उसके साथ है। वो बिक गया। ये पलट गया। और भी ना जाने क्या-क्या विशेषण। पत्रकार जो ठहरे – भाषा की ही तो खाते हैं! राडिया टेप कांड में कैसे लड़े थे? किन्तु बड़े ‘अनप्रिडिक्टेबल’ होते हैं। अचानक एकजुट भी हो जाते हैं।

आपातकाल में इंदिरा गांधी से शोषित-पीड़ित होने के बाद कैसे इकट्‌ठे हो गए थे।

राजीव गांधी जब पत्रकारों को सज़ा देने वाला मानहानि विधेयक लाए थे – तो पत्रकारों की एकता का दृश्य देखने लायक था।

पत्रकारों को, पता नहीं, ऐसा क्यों लगता है कि –

सरकारें – हमेशा ग़लत होती हैं।

विपक्ष – हमेशा कमज़ोर होता है।

सारे नेता – भ्रष्ट होते हैं।

हर फैसले में – राजनीति होती है।

जनता – हमेशा उपेक्षित होती है।

भाषण – हमेशा झूठे होते हैं।

दलित- अल्पसंख्यक-पिछड़े – हमेशा वोट बैंक होते हैं।

पत्रकारों को देखकर वह पुरानी बात याद आ जाती है कि

‘हम उपग्रह छोड़ सकते हैं, पूर्वाग्रह नहीं।’

पत्रकारों में इतने पूर्वाग्रह होते हैं।

वे हमेशा, अपने ही मन से, यह सोचने लग जाते हैं कि ग़रीबों-असहायों के साथ बहुत अन्याय हो रहे हैं। और सरकार, नेता-मंत्री, अफसर, ग़रीबों पर ये अत्याचार कर रहे हैं।

और ये सारे ‘लोक-सेवक’ भ्रष्ट हैं।

और इसी सोच के साथ वे ‘भ्रष्ट’ लोक-सेवकों की ख़बर लेने निकल जाते हैं।

हर शाम, संपादक भी रिपोर्टरों को ऐसे अंदाज़ में देखते हैं कि ‘क्या लेकर आए हो’? और एडिटिंग डेस्क की टीम भी पूछती है कि झोले में किसी ‘भ्रष्ट लोक-सेवक’ की गर्दन काटकर लाए कि नहीं। 

क्या कसाई हैं पत्रकार? पता नहीं। किन्तु पागल तो हैं ही।

भास्कर को ही देखिए।

भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद दो-दो साल की सज़ा हुई। तो भास्कर के पत्रकार पीछे पड़ गए। और बड़े-बड़े नेताओं, अफसरों की "संदिग्ध' भूमिका ढूंढ़ने लगे। कि सरगना वॉरेन एंडरसन को किसने, किसके इशारे पर सरकारी सुरक्षा में देश से सम्मानजनक निकाल भेजा?

केस, दोबारा खुलवा लिया दबाव डालकर।

पागलपन ही तो है।

लेकिन लोगों को देखिए, उन्हें ये ‘पागलपन’ चाहिए भी।

पैसे लेकर प्रश्न पूछने वाले सांसद, हथियार कांड में घूस लेने वाले सैन्य अफसर, आदर्श घोटाले में मुख्यमंत्री से लेकर अफसर-मंत्री-संत्री सब कोई इन पत्रकारों से त्रस्त हुए हैं। कितने ही पदों पर सजे मठाधीश, पत्रकारों द्वारा भ्रष्ट घोषित किए जाने पर ‘भूतपूर्व’ हो चुके हैं।

तोप घोटाला, पनडुब्बी घोटाला, ताबूत घोटाला, हेलिकॉप्टर घोटाला, निवेश घोटाला, विनिवेश घोटाला, व्यापमं घोटाला, बैंक घोटाला, शेयर घोटाला, लोन घोटाला, क्रिकेट सट्‌टा घोटाला, मिड डे मील घोटाला, मेरिट घोटाला, सृजन घोटाला, हवा, पानी, बिजली, सड़क। स्कूल, अस्पताल, मंदिर। साधुनंदन-मुनि-पीर-बाबा। मेडिकल-इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट। सभी के घोटाले लाते-लाते भी थकते नहीं हैं पत्रकार।

ईश्वर को नहीं छोड़ते।

किन्तु, लोकसेवकों को तो छोड़ो।

महाराष्ट्र में लोकसेवकों को संरक्षण देने वाले कानून के बावजूद कोई पत्रकार डरा नहीं।

डरते हैं ही नहीं।

वसुंधरा राजे सरकार ही पत्रकारों से डर गई। वरना, मैं तो इसके समर्थन में हूं। 

क्योंकि जितना पत्रकारों का दमन होगा, उतने ही निर्भीक बनकर उभरेंगे वे।

पत्रकार, दमन के बाद ही उफनते हैं।

मीडिया का वास्तविक साहस देखना हो तो उसे कुचलने लग जाओ।

जिस-जिस सरकार ने ऐसा किया, वो फूट-फूट कर रोती पाई गई है।

अपदस्थ होकर, सत्तालोलुपों के रुदन से किसी का दिल भी नहीं पसीजता।

और अफसरों का भ्रष्टाचार तो उजागर हो ही नहीं पाता है कभी।

यदि वसुंधरा राजे का यह कानून बन जाता, तो पत्रकार हर अफ़सर के पीछे पड़ जाते। भ्रष्ट का पता लगने लगता। और, सीआरपीसी का संशोधन कौन-सा महान संशोधन है?

भ्रष्ट के नाम, उनकी पहचान उजागर करने पर दो क्या दो सौ वर्षों की भी जेल हो- तो उसे चुनौती कोर्ट में ही तो देनी होगी, न?

तो पत्रकार देंगे। पागल जो ठहरे।

देशवासियों से निर्दयता से वसूले जाने वाले जीएसटी और इन्कम टैक्स से राष्ट्र-निर्माण की जगह भ्रष्ट लोक-सेवकों की अकूत संपत्ति का निर्माण नहीं होने देने वाले पत्रकारों को एक बार जेल भेजिए, तो। फिर देखिए।

भ्रष्ट, भ्रष्ट को न बचाएं; असंभव है- किन्तु भ्रष्टों को रोकना ही होगा।

जापानी ज़ेन गुरुओं की आदत होती है- प्रतिभाशाली शिष्यों को छड़ी के कठोर प्रहार से अचानक नींद से जगा देना।

पत्रकारों के लिए सत्ताधीशों-शक्तिशालियों के अत्याचार, उस छड़ी जैसा ही काम करते हैं।

मार खाकर जगे हुए पत्रकार, घायल शेर की तरह खूंखार होते हैं। वॉचडॉग नहीं रह जाते। वसुंधराजी, परखकर देख सकती हैं।

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