MSP के जरिए अन्नदाताओं को तोहफा,जानें क्या है न्यूनतम समर्थन मूल्य

नई दिल्ली  ।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने पूरी रबी की फसल (2017-18) के लिए एमएसपी की मंजूरी दी। केंद्र सरकार ने गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 110 रुपये बढ़ाकर 1735 रुपये प्रति क्विंटल किया कर दिया है। इसके साथ ही चना और मसूर के एमएसपी में भी 200 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की है। गेहूं का एमएसपी 110 रुपये बढ़ाकर 1735 रुपये प्रति क्विंटल किया है, पिछले साल यह 1625 रुपये प्रति क्विंटल था। चना और मसूर की खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इनके एमएसपी में प्रत्येक में 200 रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है और नयी कीमत 4200 और 4150 रुपये प्रति क्विंटल होगी।

सरकार का तर्क है कि इस एमएसपी की घोषणा से किसानों की खुशहाली आएगी। लेकिन आप को बताएंगे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या अर्थ होता है। इसके साथ ही हम आप को ये भी बताएंगे कि क्या केंद्र सरकार का 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का सपना पूरा हो पाएगा। 

 

क्या है न्यूनतम समर्थन मूल्य

 

भारत में किसानों को उनकी उपज का ठीक मूल्य दिलाने और बाजार में कीमतों को गिरने से रोकने के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करती है। कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों पर सरकार फसल बोने के पहले कुछ कृषि उत्पादों पर समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। खासतौर से जब फसल बेहतर हो तब समर्थन मूल्य की जरूरत होती है।

 

देश में 26 कृषि उत्पादों पर सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है। इनमें सात अनाज, पांच दलहन,आठ तिलहन के अलावा जटा वाले और छिले नारियल, कपास, जूट और तम्बाकू शामिल हैं. इसके अलावा गन्ने की कीमतें गन्ना (नियंत्रण) आदेश 1966 के तय होती है। सत्तर के मध्य दशक तक दो तरह के मूल्य घोषित करती थी। एक, न्यूनतम समर्थन मूल्य, दूसरा खरीद मूल्य। पहले का उद्देश्य यह था कि बाजार में कीमतों को एक स्तर से नीचे न आने दिया जाए।  दूसरे का उद्देश्य था सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम के वितरण के लिए एफसीआई जैसी सरकारी संस्थाओं द्वारा की जाने वाली रबी और खरीफ की खरीद का मूल्य तय करना।

 

सामान्य तौर पर खरीद मूल्य बाजार मूल्य से नीचा और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से ज्यादा होता था इन दो कीमतों की नीति धान के मामले में 1973-74 तक जारी रही और गेहूँ के संदर्भ में 1969 में खत्म करने के बाद 1974-75 में एक साल के लिए फिर शुरू की गई। सन 1975-76 में बफर स्टॉक बनाने के लिए वर्तमान नीति शुरू की गई।

1965 में हुआ था कृषि मूल्य आयोग का गठन

जनवरी 1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना हुई। 1985 में इसमें लागत निर्धारण का हिस्सा जुड़ा और इसे तभी से इसे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कहा जाता है। 2009 से न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण में उत्पादन की लागत, मांग और आपूर्ति की स्थिति, आदान मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, जीवन निर्वाह लागत पर प्रभाव और अन्तराष्ट्रीय बाजार के मूल्य को ध्यान में रखा जाता है।

 

कृषि एवं किसान मंत्रालय द्वारा ने राज्य सभा को ये जानकारी दी थी कि खेती के उत्पादन की लागत के निर्धारण में केवल नकद या जिंस से सम्बंधित खर्चे ही शामिल नहीं होते हैं, बल्कि इसमें भूमि और परिवार के श्रम के साथ-साथ स्वयं की संपत्तियों का अध्यारोपित मूल्य भी शामिल होता है। भारत में खेती के क्षेत्र में जबरदस्त विविधता होती है. जलवायु, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी का प्रकार और सांस्कृतिक व्यवहार। ये सब कृषि के तौर तरीकों को गहरे तक प्रभावित करते हैं लेकिन जब भारत सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है।

 

कृषि लागत और मूल्य आयोग कैसे करता है काम

आयोग पूरे देश की विविधता को इकठ्ठा करके एक औसत निकाल लेता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देता है आयोग के अपने खुद के ही आंकलन बताते हैं कि देश में उत्पादन की परिचालन लागत (इसमें श्रम, बीज, उर्वरक, मशीन, सिंचाई, कीटनाशी, बीज, ब्याज और अन्य खर्चे शामिल हैं) और खर्चे भिन्न-भिन्न होते हैं, फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है। इसमें मानव श्रम के हिस्से को खास नजरिए से देखने की जरूरत है क्योंकि कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए।

 

पिछले ढाई दशकों में करीब 11.1 प्रतिशत लोग खेती से बाहर तो हुए हैं। लेकिन कृषि से बाहर हुए लोगों को वैकल्पिक रोजगार नहीं मिल पा रहे हैं। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने ही वर्ष 2014-15 के सन्दर्भ में रबी और खरीफ की फसलों की परिचालन लागत का अध्ययन किया, इससे पता चलता है कि कई कारकों के चलते अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है।

 

हम इस पूरी प्रक्रिया को कुछ उदाहरणों के जरिए समझने की कोशिश करेंगे।

चना

बिहार में एक हेक्टेयर में चने की खेती में रुपये की परिचालन लागत आती है,जबकि आंध्रप्रदेश में 30266 रुपये, हरियाणा में 17,867 रुपये, महाराष्ट्र में 25,655 रुपये और कर्नाटक में 20,686 रुपये लागत आती है। इस लागत में अंतर आने एक बड़ा कारण मजदूरी पर होने वाला खर्च शामिल है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि खेती से सिर्फ किसान ही नहीं कृषि मजदूर भी जुड़ा होता है। बिहार में कुल परिचालन लागत में करीब 8234 रुपये आंध्रप्रदेश में 13 381 रुपये हरियाणा में 11722 रुपये मध्यप्रदेश में 6966 रुपये राजस्थान में 7896 रुपये हिस्सा मजदूरी व्यय का होता है। चने की प्रति हेक्टेयर परिचालन लागत अलग-अलग राज्यों में 16444 रुपये से लेकर 30166 रुपये के बीच आ रही है।

 

गेहूं

यह एक महत्वपूर्ण कृषि उत्पाद है। इसके अध्ययन से पता चलता है कि खेती के मशीनीकरण ने कितना असर डाला है। पंजाब गेहूं के उत्पादन में अग्रणी राज्य है। वहां गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत 23,717 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से वह केवल 23 फीसद यानि 5437 रुपये ही मानव श्रम पर व्यय करता है, वह मानव श्रम से ज्यादा मशीनी श्रम पर खर्च करता है। जबकि हिमाचल प्रदेश में परिचालन लागत 22091 रुपये है, जिसमें से 50 फीसद हिस्सा 10956 रुपये मानव श्रम का है। इसी तरह राजस्थान में गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत पंजाब और हिमाचल प्रदेश की तुलना लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है। वहां लागत का 48 फीसद 16,929 रुपये) हिस्सा मानव श्रम पर व्यय होता है।

 

इसी तरह मध्य प्रदेश 25,625 रुपये में से 8469 रुपये, पश्चिम बंगाल 39977 रुपये की परिचालन लागत में से 19806 रुपये, बिहार 26817 रुपये में से 9562 रुपये) मानव श्रम पर व्यय करते हैं। गेहूं की बुनियादी लागत 20147 रुपये से 39777 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच आई थी।  

 

2022 तक आय दोगुनी करने की कार्ययोजना

 

-पर्याप्त संसाधन के साथ सिंचाई पर ध्यान केंद्रित करना।

 

-गुणवत्तापूर्ण बीज, रोपण सामग्री, जैविक खेती एवं प्रत्येक खेत को मृदा स्वास्थ्य कार्ड एवं अन्य योजनाओं के माध्यम से उत्पादन में वृद्धि।

 

-फसलोपरांत होने वाली हानि को रोकने के लिए वेयर हाउसिंग और कोल्ड चेन का सुदृढ़ीकरण।

 

-खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्य संवर्द्धन की योजना पर कार्य। 

 

-ई-राष्ट्रीय कृषि बाजार से कृषि बाजार क्षेत्र की विकृतियों पर अंकुष लगाना।

 

-कृषि क्षेत्र में जोखिम कम करने एवं कृषि क्षेत्र के विकास के लिए संस्थागत ऋण की उपलब्धता पर कार्य ।

 

-कृषि के अनुसंगी कार्यकलाप जैसे डेयरी विकास, पोल्ट्री, मधुमक्खी, मत्स्य पालन, कृषि वानिकी एवं एकीकृत कृषि प्रणाली।

Leave a Reply