मठ और मंदिरों में नहीं, यहां है ईश्वर का निवास

एक नगर था। उसमें एक धनाढ्य परिवार रहता था। दादा-दादी, माता-पिता और उनका जवान बेटा। नित्य विधि-विधान से ईश्वर की पूजा करते, रविवार को हवन करके मंदिरों में दान-दक्षिणा देते। घर में सुख के सभी साधन थे, पर परिवार के उस इकलौते वारिस का मन सदा व्याकुल रहता। उस नगर से थोड़ी ही दूर एक छोटा सा आश्रम था। उसमें एक संत रहते थे। पिता ने निर्णय लिया कि पुत्र के अंतर्मन में सुख के कपाट खोलने के लिए वे उसे संत की शरण में ले जाएंगे।


अगले दिन पौ फटते ही पिता-पुत्र संत की कुटिया पर पहुंच गए। संत ने उनके आने का कारण पूछा। पिता ने पूरी बात कह सुनाई। संत युवक की ओर मुड़े, बोले, ‘तुम्हीं बताओ वत्स, तुम्हारा मन किस बात से विचलित है?’ युवक बोला, ‘महाराज, जबसे मैंने होश संभाला है, घर में पूजा-पाठ के स्वर सुनता आया हूं। फिर भी मैं ईश्वरीय अंतर्बोध पाने के लिए तरस रहा हूं। आप उसका रास्ता बताएं।’ यह सुन संत मुस्कराए, बोले, ‘बेटा, तुमने तो बहुत बड़ी बात कह दी। यह राह तो तुम्हें स्वयं तलाशनी होगी। यह अंतर्बोध तो आत्म-अनुभूति से ही हो सकता है। बिना सोचे-विचारे किए गए धार्मिक अनुष्ठान, तीर्थ, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि से हम ईश्वर को कदापि नहीं जान सकते। कर्मकांड तो मात्र उसे मानने तक सीमित हैं, उसे जानने का साधन नहीं।’


सच है कि हममें से अधिकांश लोग अपनी आध्यात्मिक यात्रा मात्र धार्मिक रस्मो-रिवाज को पूरा करने में ही गुजार देते हैं। अंधविश्वास, अंधभक्ति में इतने डूब जाते हैं कि ईश्वरीय अंतर्बोध तो छोड़िए, मानवता के सीधे-सरल प्राकृतिक नियमों से भी दूर हो जाते हैं। धार्मिक कट्टरवाद, दूसरों के आस्था-विश्वास के प्रति असहिष्णुता और हिंसात्मकता का अमानवीय चोला पहन हम ईश्वर के प्रति अपनी गहन निष्ठा का स्वांग रचते हैं, मानो दूसरों के साथ बुरा करने में ही प्रार्थना का मार्ग छुपा हो, धर्म की जय होती हो, परमात्मा की प्राप्ति होती हो। यह हमारी बहुत बड़ी भूल है।


ईश्वर को पाने के लिए जरूरी है कि हम प्रेम, सद्भाव, समर्पण, सदाचार, सहिष्णुता, सबके मंगल-सबके हित के दिव्य प्रकाश से आलोकित सच्चे मार्ग पर चलें। सृष्टि-रचयिता के बनाए समूचे विश्व में उसके दर्शन की सुगम इच्छा रखें और सत्य के पथ पर चलते हुए ईश्वर की आत्म-अनुभूति करें। यह डगर ही हमें जीवन की हर रचना में, धरती से लेकर आकाश तक के संपूर्ण विस्तार में, प्रभु के दर्शन करा सकती है।


एक सूफी संत ने इस निर्मल सत्य का वर्णन बहुत सरल शब्दों में किया है। वे कहते हैं कि- ‘मैं न जाने क्यों पूरी उम्र इधर-उधर चारों दिशाओं में भटकता रहा! आखिर में मैंने जब अपने ही हृदय के कोने में नजर डाली, तो पाता हूं कि वह तो वहीं बैठा है।’ सच्ची आध्यात्मिक यात्रा की संपूर्णता इसी निर्मल सत्य में छिपी है, टटोल कर देख लीजिए।


Leave a Reply